होली के मौके पर उनके घर में होली मिलन का हुआ आयोजन

सर्वाधिक चर्चित गीत ‘कहे के त सब केहू आपन, आपन कहावे वाला के बा’

होली मिलन के आयोजन में लक्ष्मण शाहाबादी के बड़े पुत्र राकेश शाहाबादी ने अपने को याद करते हुए कहा कि शायद ही कोई ऐसा गायक होगा जिसने पापा का गाना नहीं गया हो. इस अवसर पर पत्रकार रवीन्द्र भारती , संजीव केशरी ,राहुल कुमार राजीव रंजन सिन्हा समेत कई गणमान्य लोग उपस्थित थे.

भोजपुरी और हिन्दी फिल्मों मशहूर गीतकार लक्ष्मण शाहबादी आरा के रहनेवाले थे. अपने समय में उन्होंने एक से बढ़कर एक गीत लिखे, जो आज भी लोगों के जुबान पर चढ़ जाते हैं. नायब गीतों के रचयिता को अटल बिहारी सम्मान से नवाजा गया था. ‘दुनिया में आवे खातिर मरे के पड़ी’, मशहूर गीतकार लक्ष्मण लक्ष्मण शाहाबादी का पहला गीत था. ‘केहू लुटेरा केहू चोर हो जाला, आवेला जवानी बड़ा शोर हो जाला’, इस गाने ने पूरी इंडस्ट्री में धूम मचा दिया. इस तरह गीतों में लोककला के प्रति असीम सौंदर्य बोध है. इनका सफर आरा से निकलकर मुंबई तक पहुंचा. सबसे पहले उनको एचएमटी कंपनी से ऑफर मिला. इनके पहले गीत को मोहम्मद रफी साहब ने अपनी आवाज दी. बिहार से पहली हिंदी फिल्म बनी ‘कल हमारा है’, उसका गीत भी शाहाबादी जी ने लिखा, जिसे मोहम्मद रफी और मन्ना डे समेत कई मशहूर गायकों ने आवाज दी. फिर उन्होंने फिल्म ‘घुंघट’ के लिए गीत लिखा.

लक्ष्मण शाहाबादी का जन्म आरा के शिवगंज मोहल्ला में 16 मई 1938 को हुआ था. पिता रामलला प्रसाद मशहूर सितार वादक थे. शाहाबादी जी को संगीत विरासत में मिली. लक्ष्मण शाहाबादी को गीत-संगीत से वास्ता बचपन से ही रहा.भोजपुरी फिल्म के इतिहास में 1981 में सुपरहिट फिल्म आई ‘धरती मैया’, जिसकी ख्याति पूरे देश में फैल गई. उसका फेमस गाना था ‘जल्दी-जल्दी चल रे कहरा, सूरज डूबे रे नदिया’. पहली बार चित्रगुप्त के संगीत में भोजपुरी के बेहतरीन गीत ‘केहू लुटेरा केहू चोर हो जाला, आवेला जवानी बड़ा शोर हो जाला’, इस गाने ने तो पूरी इंडस्ट्री में धूम मचा दिया. साल 1983 में फिल्म गंगा किनारे मोरा गांव के ही गीत लक्ष्मण शाहाबादी ने लिखा.

साल 1986 में ‘दूल्हा गंगा पार के’ फिल्म के गीत, संगीत और संवाद सब लक्ष्मण शाहाबादी का ही था. उसी फिल्म में इनका लिखा हुआ गीत ‘काहे जिया दुखवल.. चल दिहल मोहे बिसार के  एतना बता द ये दूल्हा गंगा पार के’. उनके गीतों को सुनकर ये कहा जा सकता है कि उनका गीत भोजपुरी और हिंदी दोनों का मिलन जैसा था. वो भोजपुरी के ऐसे नगीने थे, जिनमें हिंदी के चित्रगुप्त और शैलेंद्र की आत्मा बसती थी. चित्रगुप्त जी के साथ इनकी जोड़ी ने धूम मचा दिया. भोजपुरी सिनेमा के असली रूप को देखना हो तो सन 1980 से लेकर 1990 के बीच के सिनेमा को देखें, जिसे भोजपुरी सिनेमा का स्वर्ण युग कहा जाता है. उसे लक्ष्मण शाहाबादी ने गढ़ा था. तब इन सब फिल्मों को दिल्ली से देहात तक और मुंबई से बक्सर और आरा तक देखा जाता था और सुना जाता था.

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