किताब उत्सव के बहाने याद किये जा रहे हैं दिग्गज




हरिमोहन झा मैथिली के करुण रस के सम्राट : कमलानंद झा

हरिमोहन झा मैथिली नवजागरण के अग्रदूत

भारतीय नृत्य कला मंदिर, पटना में, किताब उत्सव का पांचवां दिन

कला, संस्कृति एवं युवा विभाग बिहार सरकार पटना के सहयोग से भारतीय नृत्य कला मंदिर में राजकमलप्रकाशन समूह द्वारा आयोजित किताब उत्सव के पांचवें दिन विभिन्न सत्रों का आयोजन हुआ.अपराह्न 4 बजे से आयोजित पहला सत्र कार्यक्रम हमारा शहर-हमारे गौरव हरिमोहन झा : कृतित्व स्मरण में वक्ता : तारानंद वियोगी, कमलानंद झा, रूपा झा उपस्थित थे.

हमारा शहर, हमारे गौरव की श्रृंखला में मैथिली नवजागरण के अग्रदूत हरिमोहन झा का कृतित्व स्मरण किया गया. इस सत्र में तारानंद वियोगी, कमलानंद झा और रूपा झा वक्ता के तौर पर मौजूद रहे. इस सत्र में तारानंद वियोगी ने कहा कि बिहार के, खास तौर पर मिथिला के समाज में हरिमोहन झा नवजागरण के अग्रदूत के रूप में समादृत हैं. अंधविश्वास और पाखंड में जकड़े समाज में चेतना के प्रसार के लिए ही उन्होंने साहित्य-लेखन को माध्यम बनाया था. उन्होंने इक्कीस साल की उम्र में अपने प्रसिद्ध उपन्यास कन्यादान के लेखन से रचनाकर्म की शुरुआत की थी और बाद में कहानी और वार्ता-साहित्य के क्षेत्र में अनूठालेखन किया. उन्होंने हरिमोहन झा की रचनाओं की लोकप्रियता को रेखांकित करते हुए बताया कि वे मूलत: मैथिली के लेखक थे लेकिन समूचे देश के पाठकों में इतने लोकप्रिय थे कि उन्हें पढ़ने के लिए लोगों ने मैथिली सीखी. खट्टर काका का पहला संस्करण 1948 में मैथिली में छपा था था जिसकी वार्ताओं का अनुवाद विभिन्न देशी-विदेशी भाषाओं में प्रकाशित हुआ.

खट्टर काका को हरिमोहन झा की रचनाशीलता की;सहसा एक उछली हुई बूंद बताते हुए वियोगी जी का कहना था कि उनके समूचे साहित्य को पढ़ना आज भी रोमांच से भर देता है. वहीं कमलानंद झा ने उनको याद करते हुए साहित्य की दुनिया में उनको सही स्थान नहीं देने की बात कही. कमलानंद झा ने बताया कि मैथिली आलोचना ने हरिमोहन झा को पहचानने में भूल की और उन्हें हास्य व्यंग्य के उपाधि से विभूषित कर दिया. हम सभी जानते हैं हास्य रचनाकार दोयम दर्जे का होता है और जो बड़े रचनाकार होते हैं चाहे वाल्मीकि से लेकर कालिदास, भवभूति से शेक्सपियर तक सभी करुणा के रचनाकार है. मेरा मानना है कि हरिमोहन झा मैथिली के करुण रस के सम्राट है. उनकी रचनाओं में जो हास्य है उसे मैं उनके लेखन की शैली मानता हूं, वो उपादान है,उनके कहने का स्टाइल है. आगे उन्होंने हरिमोहन झा के उपन्यास कन्यादान का उदाहरण देते हुए कहा कि उपन्यास में जो पीड़ा है, उस पर कोई समाज हँस कैसे सकता है. जो कहानी है उनकी उसके जीवन पर तो मतलब सन्न रह सकता है हंसी नहीं आ सकती है. मेरी ये स्थापना है कि हरिमोहन झा करुण रस के रचनाकार है और जहां हास्य हैं वो उनकी शैली ली है. हरिमोहन झा मैथिली नवजागरण के अग्रदूत है. पूरे भारतीय नवजागरण और बंगाल नवजागरण, मराठी नवजागरण सब जगह देखें तो शिक्षा के मुद्दों पर, धार्मिक कूपमंडूकता पर लड़ाई चल रही थी उस समय हरिमोहन झा की रचनाओं में इन सभी मुद्दों पर बात हुई.

अपने अंदर की लड़ाई है उससे लड़ना मुश्किल होता है. तीसरी उनकी जो महत्वपूर्ण बात है कि उनमें जो विश्व दृष्टि थी वो अद्भुत थी. किसी रचनाकार की महत्ता विश्व दृष्टि सेबनती है. 1945में सिमोन दी बोउवार की किताब आती है द सेकंड सेक्स और 1929 में हरिमोहन झा का उपन्यास कन्यादान आता है. सिमोन दी बोउवार ने जो सैद्धांतिक बातें अपनी किताब में की है जो हरिमोहन झा पहले ही अपनी किताबों कन्यादान और निरागमनमें कर चुके होते हैं. इस तरह उनकी जो विश्व दृष्टि थी वहअत्यंत महत्वपूर्ण है. लेकिन जो हास्य की बात मैं कह रहा हूं वो इसलिए कि वह जानबूझकर उनकी बातों को हंसी मजाक में उड़ा गया है. इसलिए उन पर आलोचकों ने वर्ण व्यवस्था और मिथिलांचल की धार्मिक कूपमण्डूकता के जो समर्थक थे उन लोगों ने हास्य सम्राट कह दिया कि इनकी बातों को गंभीरता से ना ली जाए.

वहीं सत्र की अन्य वक्ता रूपा झा ने उनके संस्मरणों को याद करते हुए कहा कि उन्हें हमसे दिल्ली पटना की रेलयात्रा वृतांत सुनने के बड़ा शौक रहता, और हमारी लिखी चिठ्ठियों को पढ़ने का भी. उन्हें प्रणाम करने पर हमेशा यही आशीर्वाद देते शिवानी बनो. रानीघाट का क्वार्टर की हर शाम, दादाजी और उनके गणमान्य मित्रों के ठहाकों से गुंजायमान रहा करती थी, जिसमें दादीजी का भी बैठना अनिवार्य होता था. दादाजी अख़बार पढ़ते और दादीजी उनकी एकमात्र श्रोता… हमारे दार्शनिक दादाजी के लोगों को भूलने के किस्से तो किंवदंती बन चुके हैं.इस सत्र का संचालन प्रभात रंजन ने किया.

सच्चिदानंद सिन्हा विकल्प के नहीं बल्कि मूल की खोज के लेखक: प्रभात रंजन

दूसरा सत्र― सच्चिदानंद सिन्हा : विकल्प का विचार

(वक्ता : शिवानंद तिवारी, श्रीकांत, प्रभात रंजन)

कार्यक्रम का दूसरा सत्र प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा रचनावली पर कार्यक्रम का आयोजन हुआ. जिसमें प्रसिद्ध समाजवादी शिवानन्द तिवारी ने समाजवादी आंदोलन में उनके अवदानों की चर्चा की. प्रसिद्ध लेखक पत्रकार श्रीकान्त ने उनकी बौद्धिकी की चर्चा की और यह बताया कि वे अपनी परंपरा के अकेले लेखक थे. श्रीकांत ने कहा कि सच्चिदानंद बाबू ने एक दार्शनिक का जीवन जिया है. बिहार में ऐसे समाजवादी जिन्होंने गांधी और समाजवादी दर्शन को अपने जीवन में उतारा है. उन्होंने जाति, सामाजिक जीवन, समाजवाद पर बहुत कुछ लिखा.प्रभात रंजन ने उनकी मौलिकता को रेखांकित किया और बताया कि वे विकल्प के नहीं बल्कि मूल की खोज के लेखक हैं. उनका शब्द आत्मानुशासन बहुत कुछ सिखाने वाला है.

तीसरा सत्र― राजा मोमो और बुलबुल

विकास कुमार झा से निवेदिता की बातचीत

तीसरे सत्र में विकास कुमार झा के नए उपन्यास राजा मोमो और पीली बुलबुल पर निवेदिता ने उनसे बातचीत की.राजा मोमो और बुलबुल का कथानक गोवा राज्य के सामाजिक परिवेश और उसकी संस्कृति के इर्दगिर्द बुना गया है. यह उस गोवा का साक्षात्कार कराता है, जिसे आपने अब तक न देखा है, न ही उसके बारे में सुना है—दुनियाभर के सैलानियों की नजर में स्वर्ग सरीखे सैरगाह के रूप में चर्चित गोवा के रहवासियों की निजी सामाजिक ज़िन्दगी की अब तक अनदेखी तस्वीरें इस उपन्यास के ज़रिए सामने आई हैं. हिन्दी में गोवा को आधारबनाकर लिखा गया ‘राजा मोमो और पीली बुलबुल’ पहला उपन्यास है जिसमें उसकी सामाजिक, सांस्कृतिक और नैसर्गिक विशिष्टता अपने पूरे वैभव के साथ उपस्थित है. ‘राजा मोमो और पीली बुलबुल’ में लोगों के बेहिसाब बढ़ रहेवजन की समस्या केन्द्र में है, जिस मामले में गोवा भारत के सभी प्रान्तों से आगे है. इस प्रकार संभवत: यह हिन्दी समेत सभी भारतीय भाषाओं में पहली कृति होगी जिसमें मोटापे, अधिक वजन की समस्या को विषय बनाया गया है. प्राचीन काल से परम्परावादी इस प्रान्त को निरन्तर सामाजिक-सांस्कृतिक पतन ने भीतर से क्षयग्रस्त कर रखा है. ज़माने से वैश्विक अय्याशी का केन्द्र रहा गोवा खनन मा​फ़िया, ड्रग माफ़िया, गोवा को कंक्रीट का जंगल बनानेवाले भवन माफ़िया और वन-माफ़िया के करतबों से चुपचाप ख़ून के आँसू टपका रहा है. हिन्दी साहित्य में गोवा सदैव से हाशिये पर रहा है. पहली बार हिन्दी साहित्य में गोवा को लेकर बड़े फ़लक पर लिखा गया यह बृहत् उपन्यास देश के सबसे छोटे प्रान्त को केन्द्रीय विमर्श में लाने की पेशकश करता है.

चौथा सत्र― लोग जो मुझमें रह गए

अनुराधा बेनीवाल से दिव्या गौतम की बातचीत

चौथे सत्र में अनुराधा बेनीवाल की यायावरी-आवारगी की किताब लोग जो मुझमें रह गएपर दिव्या गौतम ने उनसे बातचीत की. अनुराधा बेनीवाल ने अपनी किताब ‘लोग जो मुझमें रह गए’ पर अपनी बात रखते हुए कहा कि मैं दूर बसे लोगों के बाराए में कहानियाँ लिखना चाहता हूँ, उन लोगों की संस्कृति के बारे में बताना चाहता हूँ. उन्होंने आगे कहा कि हम जिस समाज में हैं, उसमें दूसरों के बारे में जानने का प्रयास करना चाहिए. और दूसरी संस्कृति का भी सम्मान करना चाहिए. दिव्या से बातचीत में अनुराधा ने बताया कि जैसा कि हम यूरोप या पश्चिम देशों के बारे में अवधारणाएँ बना लेते हैं, यूरोप उससे बहुत अलग है. वहाँ भी हर तरह की संस्कृति के लोग रहते हैं. उन्होंने यूरोप,पोलेंड, यूके लात्विया के बारे में श्रोताओं को बताने का प्रयास किया.यह किताब उन्होंने यूरोप की यात्राओं के दौरान मिले लोगों को आधार बनाकर लिखी है.

अनुराधा मानती है कि जब भी हम किसी से मिलते हैं, नए लोग, नई जगह नया परिवेश तो उन सबका का कुछ-कुछ हिस्सा हमेशा के लिए हमारे अंदर रह जाता है. ऐसे ही तमाम अनुभवों को एक करके इस किताब के रूप में उन्होंने हमारे सामने रखा है. एक लड़की जो अलग-अलग देशों में जाती है और अलग-अलग जींस और जज़्बात के लोगों से मिलती है. कहीं गे, कहीं लेस्बियन, कहीं सिंगल, कहीं तलाक़शुदा, कहीं भरे-पूरे परिवार, कहीं भारत से भी ‘बन्द समाज’ के लोग. कहीं जनसंहार का रोंगटे खड़े करने और सबक देने वाला—स्मारक भी वह देखती है जिसमें क्रूरता और यातना की छायाओं के पीछे ओझल बेशुमार चेहरे झलकते हैं. उनसे मुख़ातिब होते हुए उसे लगता है, सब अलग हैं लेकिन सब ख़ास हैं. दुनिया इन सबके होने से ही सुन्दर है. क्योंकि सबकी अपनी अलहदा कहानी है. इनमें से किसी के भी नहीं होने से दुनिया से कुछ चला

जाएगा. अलग-अलग तरह के लोगों से कटकर रहना हमें बेहतर या श्रेष्ठ मनुष्य नहीं बनाता. उनसे जुड़ना, उनको जोड़ना ही हमें बेहतर मनुष्य बनाता है; हमारी आत्मा के पवित्र और श्रेष्ठ के पास हमें ले जाता है. ऐसे में उस लड़की को लगता है—मेरे भीतर अब सिर्फ़ मैं नहीं हूँ, लोग हैं. लोग—जो मुझमें रह गए! लोग जो मुझमें रह गए—‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ कहने और जीने वाली अनुराधा बेनीवाल की दूसरी किताब है. यह कई यात्राओं के बाद की एक वैचारिक और रूहानी यात्रा का आख्यान है जो यात्रा-वृत्तान्त के तयशुदा फ्रेम से बाहर छिटकते शिल्प में तयशुदा परिभाषाओं और मानकों के साँचे तोड़ते जीवन का दर्शन है. ‘यायावरी आवारगी’ श्रृंखला की यह दूसरी किताब अपनी कंडीशनिंग से आज़ादी की एक भरोसेमन्द पुकार है.

किताब उत्सव में सर्वाधिक बिकने वाली किताबें-

ठक्कन से नागार्जुन – शोभाकान्त, कौन तार से बीनी चदरिया – व्यास मिश्र, पानी जैसा देश – विनय कुमार , आधुनिक भारत के ऐतिहासिक यथार्थ – हितेन्द्र पटेल, कौन

है भारत माता – पुरुषोत्तम अग्रवाल, लोग जो मुझमें रह गए – अनुराधा बेनीवाल, कच्छ कथा – अभिषेक श्रीवास्तव, रेत समाधि – गीतांजलि श्री, एकाकीपन के सौ वर्ष – गेब्रियल गार्सिया मार्ख़ेस, सोफी का संसार – जॉस्टिन गार्डर

आज के कार्यक्रम 10/11/22, गुरुवार

अपराह्न 4:00 से 4:45 बजे- हमारा शहर हमारे गौरव, राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह : कृतित्व स्मरण (वक्ता : कमलानंद झा, तरुण कुमार, प्रभात रंजन)

अपराह्न 4:45 से 5:30 बजे- तानी कथाएँ : आदिवासी समाज की विश्वदृष्टि लोकार्पण (जोराम यालाम नाबाम की नई किताब का लोकार्पण और उनसे अश्विनी कुमार पंकज की बातचीत)

अपराह्न 5:30 से 6:15 बजे- संगरंग हृषीकेश सुलभ की नई पुस्तक के बहाने रंग दुनिया पर चर्चा लोकार्पणकर्ता : जावेद अख़्तर वक्ता : मोना झा, पुंज प्रकाश, रणधीर कुमार, प्रवीण कुमार गुंजन)

सायं 6:15 से 7:00 बजे- भारतीय काव्यशास्त्र : एक परिचर्चा (वक्ता : महेन्द्र मधुकर, तरुण कुमार)

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By pnc

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