चुनौतियों का सामना करने की प्रेरणा देती हैं उमा झुनझुनवाला की कविताएं

यथार्थ को उजागर करती कविताएं 

उमा झुनझुनवाला  रंगकर्म की दुनिया मे चर्चित हस्ताक्षर हैं, कविताएं भी लिखती हैं.नाटकों से उन्हें प्यार है और निर्देशन में फिलहाल जुड़ी है.एक रंगकर्मी  होने के नाते उनकी कविता में नारी मन की व्यथा कथा और प्रेम दोनों सदृश्य होते हैं .उमा झुनझुनवाला की कवितायें आज कल लोग खूब सराह रहे हैं .इनकी कविताएं यथार्थ को उजागर करती है .उन्होंने कई नाटकों का लेखन और अनुवाद किया है .रेंगती परछाई और एक टूटी हुई कुर्सी को नाट्य जगत  में पसंद किया जा रहा है . प्रस्तुत है उनकी एक कविता …




मेरे यात्री-सखा”

 

कैसे हो सखा…!!

अनजाने शहर में अनजाने लोग     10460740_482788635157994_4499187585324871385_n

कभी कभी बहुत अपने से लगते हैं….

हम बेख़ौफ़ हो कर वो सारी बाते

उनसे साझा कर लेते हैं

जो अपनों से नहीं कर पाते…

वहाँ अतीत, वर्तमान और भविष्य का डर नहीं रहता…..

पल दो पल का साथ रहता है…..

रोना-हँसना, गुनगुनाना, उदासी,….

सारे भाव रहते हैं…

बस एक दूसरे से प्रेम का भाव नहीं होता….

पल भर के प्यार के बारे में

सोचता ही कौन है….

 

हमारी मुलाकात भी तो ऐसी ही थी…

कभी सुबह काम पर जाते हुए दिख जाते

और कभी लौटते वक़्त….

और कभी कभी नहीं भी…

अक्सर छुट्टियों वाले दिन…

तुम बोगी के दरवाज़े पर

खामोश खड़े सिगरेट पीते रहते..

कभी दो, कभी तीन, कभी…

अक्सर अनजाने में

गिन ही लेती थी मैं सिगरेट…

और मेरी भी सीट

लगभग तय ही हुआ करती थी…

अपना स्टेशन आने तक

मैं अक्सर कोई किताब पढ़ती होती

या कोई कविता लिखती होती…

बीच बीच में नज़र तुम पर चली ही जाती…

13615322_763568867079968_7724782010183884886_n

तुम अपने ख्यालों में मशगुल रहते

कभी कभी हमारी नज़रे

आपस में टकरा जाती

और दोनों ही असहज हो

अपने काम में लग जाते…

 

जाने कितना वक़्त गुज़रा होगा ऐसे ही

एक बार कई दिनों तक

मैंने उन पटरियों की सवारी नहीं की

तुम धुंधले से ख्यालों में आते थे ज़रूर

मगर धुंध के साथ ही 13776015_763568863746635_8143792159479308174_n

वापस भी चले जाते

उस दिन सुबह जब मैं बोगी में चढ़ी

तो देखा तुम मेरी वाली सीट पर ही बैठे थे

मुझे देखते ही तुम लगभग चिल्ला पड़े–

“कहाँ थी तुम इतने दिनों तक…

तुम्हारा इंतज़ार कर रहा था रोज़ इसी सीट पर…”

 

मैं हैरान सी तुम्हे देख रही थी

इन प्रश्नों के लिए कहाँ तैयार थी मैं

और तुम भी अपने इस बर्ताव पर

शायद हैरान हो गए थे

तेज़ी से मुझसे नज़रे हटा कर हमेशा की तरह

सिगरेट जला कर दरवाज़े पर खड़े हो गए…

तुम्हारी आँखों से कई प्रश्नों को

बहते देखा था मैंने उस रोज़

पहली बार अपने वजूद को

धड़कते  महसूस किया

 

उसके बाद उस रोज़ तुमने

एक बार भी मेरी तरफ नहीं देखा

मैं इसलिए जानती हूँ

क्योंकि उस दिन मैं तुम्हे एकटक देख रही थी

हममे फिर कोई बात नहीं हुई

ना ही मैंने बताया कि मैं क्यूँ ग़ायब थी

और नाही फिर तुमने

जानना चाहा था उसके बाद

अगले दिन से दरवाज़े का साथी

मेरी बगल वाली सीट पर होने लगा

हममे अब भी कोई बात नहीं होती थी…

ख़ामोशी दोनों को पसंद थी

लेकिन अब तुम पढने लगे थे

मेरी डायरी का हर पन्ना                                                                     

तुम्हारी आँखों में उभरे लाल रेशों में

अपनी परवाह को सुकून पाते देखती फिर मैं

 

सुनो सखा !!

हम आज भी अनजान हैं

एक दूसरे के लिए

लेकिन फिर भी मैं तुम्हे

उतने ही क़रीब पाती हूँ

जितने आँखों के करीब उसकी दृष्टि…

जितना प्लेटफ़ॉर्म पर लगे

शहरों के नाम की तख्ती..

या जितना बोगी का वो दरवाज़ा और वो सीट…

अच्छा है न कि हमारे संबंधो का कोई नाम नहीं…

लेकिन कभी कभी सोचती हूँ                                                                        13619795_763568857079969_9146668364948340271_n

तुम मेरी डायरी के पन्नो की तरह ही हो

अनजान भी……

हमराज़ भी…..

“मेरे यात्री-सखा”

उमा झुनझुनवाला