पुनीत तिवारी रंगकर्मी और लेखक है इनकी कविताओं में समाज के दृश्य प्रतिबिम्बित होते है .युवा रचनाकार की कविताएं हम प्रमुखता से प्रकाशित करते है जिससे उनके अन्दर की बेचैनी और भाव सम्प्रेषण को हम काव्य के जरिए पढ़ सकें .उनकी रचनाओं को सराह सके.
एक साईकिल वाला
उसके पीछे वाली सीट पर एक लकड़ी का बक्सा था जिसमें उसने भरे थे
पाव-रोटी, मीठा ब्रेड और क्रीम वाला केक
जो बजाता था भोंपू
बुलाता था सभी बच्चों को अपने पिटारे वाली
नयी दुनिया के पास
उसके जाने के बाद
मैं ‘माँ’ से करता
सवाल
‘ये पाव रोटी कहाँ बनती है’?
‘माँ’ दिखाती एक पहाड़
जिसका रास्ता गुज़रता था
होकर खेत
मैं फिर करता
‘सवाल’,
‘क्या ये पहाड़ पर बनाते हैं पांव-रोटी’?
नहीं,पहाड़ पर नहीं
पहाड़ के पीछे एक ‘फैक्ट्री’ है
वहां बनता है ये सब
वैसे बात पुरानी हो चुकी है
इन सब वाकये को गुज़रे काफी अरसा भी हो गया
अब दिल्ली आ चुका हूँ
यहाँ इतना शोर है कि
खुद को सुनने का भी वक़्त नहीं
यहाँ अमूमन दीखते हैं
टाई-टोपी वाले नौजवान
जिसके पास एक स्कूटर है
पीछे कैरियर पर टंगा ‘पिज़्ज़ा-हट’ का उन्दा चमचमाता लाल रंग का बक्सा
भोंपू की जगह बजाता हॉर्न है
पूछता है एड्रेस अपने गंतव्य का
जिसके पीछे नहीं दौड़ता कोई बच्चा
मुझे लगा
ये स्कूटर वाले भाईसाब
वही ‘साइकिलवाले दद्दा’ के बेटे हैं
जो मेरे गाँव के पहाड़ के पीछे वाले फैक्ट्री में काम करते थे
मैं स्कूटर वाले भैया से कुछ बात करना चाहता था
पर सकुचा कर वापस लौट आया अपने कमरे पर
कुछ समय तक
मेरे आखों के सामने छा गया
वही ‘गाँव का अरण्य’
और मैं फिर
ढूंढने लगा
अपने हिस्से की ज़मीन का वो टुकड़ा।
-पुनीत तिवारी