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जीवन के महाविनाश की गाथा ‘जंगल गाथा

यह कोई फिक्शन नहीं है, लेकिन पढ़ने में फिक्शन का मज़ा देता है ; जितेन्द्र कुमार

जंगल गाथा:वन जीवन के महाविनाश की गाथा




वरिष्ठ पत्रकार गुंजन सिन्हा
अखण्ड पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली से सद्यः प्रकाशित'जंगल गाथा'वरिष्ठ पत्रकार गुंजन सिन्हा के'निजी अनुभवों और विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारियों पर आधारित'बिहार-झारखंड के जंगलों और उनसे जुड़े मुद्दों पर केन्द्रित है।यह सारंडा और मंडल जैसे जंगलों के विनाश, वनवासियों के विस्थापन, अविकास, ठहराव, अंधविश्वास, पर्यावरण, प्रदूषण, डायन-ओझा हत्या, नेताओं-अधिकारियों का भ्रष्टाचार, प्राकृतिक संपदा का अविवेकी दोहन, नक्सलवाद, शिक्षा-चिकित्सा-यातायात का बुनियादी अभाव आदि की महागाथा है।स्पष्ट है पुस्तक वनवासी समाज के स्वातंत्र्योत्तर सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों को विषय बनाती है।लेखक लगभग आधी सदी के बिहार-झारखंड के जंगलों और उसके निवासियों की विविध स्थितियों-समस्याओं का विवरण, वर्णन, अध्ययन एक प्रतिबद्ध पत्रकार की वस्तुगत और मानवीय दृष्टि से पुस्तक में प्रस्तुत करते हैं।इससे सत्ता के चरित्र को गहराई से समझने में मदद मिलती है।आखिर सरकारी योजनाएं क्यों अधूरी और असफल रह जा रही हैं।



कहीं कोई बुनियादी दोष है जिसे ईमानदारी पूर्वक देशहित में निर्ममतापूर्वक दूर करने की आवश्यकता है।वृक्षों, नदियों, पहाड़ों, पशुओं, पक्षियों की वर्तमान दुर्दशा को समझने के लिए लेखक सदियों प्राचीन वैदिक वांग्मय से लेकर मौर्य काल, मुगल काल, ब्रिटिश काल और आजादी के बाद तक की पर्यावरण एवं प्रकृति के बारे में मान्यताओं की शिनाख्त करते हैं।वैदिक वांग्मय में प्रकृति के हर रूप-रंग--नदी, पर्वत, पेड़, प्राणी-सबके प्रति सौहार्द एवं सह अस्तित्व की जीवन-दृष्टि थी।मुगल काल आते-आते जंगली जीवों के प्रति सत्तासीन लोगों की जीवन-दृष्टि और अवधारणाएँ बदलने लगती हैं।जहाँगीर के शासन काल में हजारों वन्य प्राणियों का संहार हुआ।लेखक का अनुमान है कि ब्रिटिश भारत में1875से1925तक50वर्षों में80,000बाघों, डेढ़ लाख चीतों और दो लाख भेड़ियों की हत्या हुई।आजादी के बाद जंगलों-पहाड़ों में मिले खनिज संपदा के लिए जंगलों की भूमि को कब्जाने के लिए सरकारी अभियान चल पड़ा।उपरोक्त प्रसंग में विवेच्य पुस्तक के खण्ड-4में महत्वपूर्ण जानकारियां मिलती हैं।इसी कड़ी में खंड-5में'वनवासी विद्रोह',पढ़ा जाना चाहिए।दी गई जानकारी ऐतिहासिक तथ्य हैं, उनके विवेचना की दृष्टि भारतीय है।वरिष्ठ पत्रकार गुंजन सिन्हा लिखते हैं:'मुगल शासन काल तक वनवासियों के जीवन और स्वायत्त व्यवस्था में राज्य ने का कोई प्रयास नहीं किया।लेकिन1764ई में मुगल बादशाह शाह आलम बक्सर के युद्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज से पराजित हो गये।उसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी वर्तमान झारखंड के अनछुए वन क्षेत्रों में आर्थिक-व्यापारिक स्वार्थ में अपनी प्रशासनिक व्यवस्था का संजाल फैलाने लगती है।वनवासी कंपनी के हस्तक्षेप के खिलाफ विद्रोह करते हैं।इस प्रसंग में लेखक ने तिलका माँझी(1772-83),चेरो मुंडा, विष्णु मानकी(1795-1800ई),कोल विद्रोह(1832-33),संताल विद्रोह(1855-56),विरसा मुंडा विद्रोह(1895-1900),ताना भगत संघर्ष(1912-14)आदि को सटीक याद किया है।लेखक की प्रतिबद्धता और दृष्टि स्वतंत्रता के पश्चात भारत के नये प्रभु वर्गों की मानसिकता का सूक्ष्म अवलोकन करती है।झारखंड की दुर्दशा का कारण तब समझ में आता है।स्वतंत्रता पूर्व झारखंड क्षेत्र के राजाओं, सामंतों, नौकरशाहों के मनोरंजन के लिए जंगलों में गरीब आदिवासियों की मदद से जंगली जानवरों के शिकार के लिए हांका लगवाया जाता था।आजादी के बाद भी यह हांका जारी रहा।जब उस क्षेत्र में नई राजनीतिक चेतना ने पाँव पसारना आरंभ किया तब आदिवासी हांका का विरोध करने लगे, तब शासन-प्रशासन ने उन्हें उग्रवादी-नक्सलवादी कहना शुरू किया।लेखकीय मंतव्य है कि"नक्सल समस्या समझने के लिए सरकारी प्रोपेगैंडा का चश्मा उतारकर पूरी पृष्ठभूमि देखनी होगी"।लेखक की निर्वैयक्तिकता उल्लेख्य पुस्तक"जंगल गाथा"को सामान्य पाठक के लिए और जरूरी पुस्तक बनाती है।उपरोक्त पृष्ठभूमि को समझने के लिए पुस्तक का खंड-5आवश्यक पाठ के लिए आमंत्रित करता है।इसमें वनवासी विद्रोह के अतिरिक्त11छोटे-छोटे लेख हैं।झारखंड में'ग्रामीण विकास का हाल'बताते हुए गुंजन सिन्हा वर्तमान सरकारी तंत्र की लूट की प्रवृत्ति, निर्जीविता और उदासीनता, बेईमानी, लापरवाही और अप्रतिबद्धता की पहचान करते हैं।"2001में2182इंदिरा आवास योजना के तहत बनने थे, बनाये गये मात्र चार।2004-5में उसी योजना के तहत10946घर बनाना था, बनाये गये मात्र497. ।"दूसरी ओर वन्य संरक्षण हो, वनराजों के संरक्षण का प्रश्न हो या'पक्षियों को बचाने का सवाल',शासन-प्रशासन की उदासीनता और अप्रतिबद्धता समझ के परे है।स्वतंत्रता के पहले और बाद के शासक वर्ग की जीवन-दृष्टि और राजनीतिक दृष्टि में कोई बुनियादी फर्क नहीं आया है।पहले वाले का माइंडसेट उपनिवेशवादी था, स्वातंत्र्योतर शासन तंत्र का माइंडसेट भी औपनिवेशिक है।आजादी के बाद वर्चस्ववादी जातियों, समूहों,कंपनियों, महाजनों द्वारा आंतरिक उपनिवेशन और लूट खसोट जारी है।वर्तमान सत्ता भाषा और संस्कृति की विविधता को संरक्षित करना नहीं चाहती।वनवासी संस्कृति पर सांस्कृतिक-आर्थिक हमले जारी हैं।इन स्थितियों का'जंगल गाथा'में संक्षिप्त लेकिन वस्तुगत मूल्यांकन उपलब्ध है जो पुस्तक को सार्थक बनाता है।

                लेखक ने पुस्तक के खंड-2में नई टिप्पणियों के साथ वन और वनवासियों से जुड़ी अपनी कुछ प्रकाशित रिपोर्टों को शामिल किया है।इससे पुस्तक और विचारणीय और विश्वसनीय हुई है।झारखंड के तथाकथित विकास की अवधारणा पर एक चुटीला लेख है:"विकास के प्रकाश स्तंभ!"दरअसल, विकास राँची जैसे शहरों में ठहर गया है।शहर के बाहर हर इलाके को यहाँ के अधिकारी उग्रवाद प्रभावित बता देते हैं।लेकिन शहर के बाहर सरकार मिलती है न नक्सली।मिलता है:अविकास, अत्याचार, और शहरियों की समझ में न आनेवाली गरीबी।यह कैसा समाजवाद है-जहाँ एक ओर विश्व के टॉप टेन अमीरों स्थान पानेवाले भारत के कॉरपोरेट घराने हैं और दूसरी ओर दुनिया का सबसे निर्धन झारखंड का नौ दस वर्ष का रंजीत नाग अलमुनियम के कटोरे में बिना नमक के पानी के साथ भात खाता है।इस क्रम में27नवंबर,1993की लेखक की डाल्टनगंज के एक गरीब गाँव की रपट ध्यातव्य है।ऐसे कई रपट पुस्तक में उपलब्ध हैं।बस्ती में मकान तो दूर कोई झोंपड़ी भी नहीं है।रहवासियों के रैनबसेरे सिर्फ टहनीदार पत्तों से बने हैं।इनको आदिम जीवन शैली से कौन बाहर निकालेगा?इनकी शिक्षा की व्यवस्था कौन करेगा?ढाई सौ लोगों की वस्तीमें एक भी साक्षर नहीं।रमकंडा निवासी सडू लोहरा और उसकी वृद्ध पत्नी रमनी की तस्वीर पुस्तक में है।उस वृद्ध दंपती की जमीन एक साव जी ने तीन सेर मकई के बदले दखल कर ली है।प्रेमचंद की कहानी सवा सेर गेहूँ याद आएगी।आजादी के पचास वर्ष बाद भारत वहीं ठहरा हुआ है।और सरकार विकास की ढोल पीट रही है।
    वनवासियों की समस्याएं बहुआयामी हैं।वहाँ अशिक्षा, अंधविश्वास और दरिद्रता का गहरा अँधकार फैला है।अशिक्षा से उपजे अँधविश्वास के ऑक्टोपस ने उनकी जिंदगी को जकड़ रखा है।जनवरी,1993की'डायन बिसाही'शीर्षक रपट ग्रामीण झारखंड की दिल दहला देने वाली तस्वीर पेश करती है।अंधविश्वास और ईर्ष्या द्वेष के कारण कुहकुह गाँव का साधू ठाकुर सपरिवार मारा जाता है।हत्यारों को अपने कृत्य पर जरा सा अपराध बोध नहीं है।इलाके में शिक्षा और चिकित्सा का घोर अभाव है।यातायात के साधन नहीं हैं।पंचाएतें खुली जेल की तरह हैं जहाँ से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है।गुंजन सिन्हा लिखते हैं कि झारखंड राज्य बनने के बाद पिछले पंद्रह वर्षों में वहाँ पाँच सौ से अधिक स्त्रियाँ डायन बताकर मार दी गईं।लेकिन अधिकारी इस आँकड़े को छिपाते हैं।
                'जंगल गाथा'पढ़ते हुए संभव है आपको बार-बार भारतीय संविधान की उद्देशिका(Preamble)की याद आए जिसमें संविधान निर्माताओं ने संपूर्ण प्रभुता संपन्न समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना का सपना देखा था, जिसमें सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय के साथ व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चित करने का संकल्प था।विवेच्य पुस्तक प्रत्यक्षतः एक प्रश्न पब्लिक डोमेन में रखती है कि भारतीय संविधान की शपथ लेकर उसके संकल्पों को भूल जाना क्या देश के प्रति विश्वासघात नहीं है?आजादी के बाद तीन चौथाई सदी बीत गई और कितनी बिरसा मुंडाइनें अकेली झोंपड़ी में एकान्तवासिनी जीने के लिए अभिशप्त क्यों हैं?डैम निर्माण में लगी आदिवासी औरतों का यौन शोषण कौन करता है और शिकायत करने पर उन्हें निकाल दिया जाता है या दूर के साइट पर भेज दिया जाता है।उन्हें वेश्यावृत्ति की ओर कौन ठेल रहा है?भारत किस तरह के समाजवाद की ओर अग्रसर है?मंडल डैम के नाम पर कितने धनेसर उरावों की जमीन सरकार ने छीन ली और मुआवजा के लिए वे दर दर भटक रहे हैं।कई लोग मुआवजा के बदले जेल भेज दिए गए।
        पुस्तक का खंड-1कई तरह से उल्लेखनीय है।लेखक एक संस्मरण"चिरौंजी और चावल बराबर"में लिखते हैं कि किस तरह चतरा(झारखंड)में गरीब किसानों के मँहगे वनोपज सेठ-साहूकार के आदमी सड़क किनारे हाट के मार्ग में बैठकर जबर्जस्ती कौड़ियों के भाव ठग लेते हैं।तब चावल एक रुपये किलो बिकता था और चिरौंजी पचास रुपये किलो।सेठ गरीब किसान की एक किलो चिरौंजी एक किलो चावल देकर ले लेता है।उसे हाट जाने से रोकता है।सेठों की यह कौन सी नैतिकता है?प्रश्न है इस अन्याय का प्रतिकार क्यों नहीं होता?
     लेखक गुंजन सिन्हा संकेत करते हैं कि इस अन्याय का प्रतिकार हो रहा है।पितीज(चतरा)के घने जंगल में कोलियरी मालिक का शानदार बंगला नक्सलियों के कब्जे में चला गया है।लेकिन वे भी गरीबों को शिक्षित करने के प्रति उदासीन हैं।सभी सरकारों का चरित्र एक जैसा हो गया है।नेता बदल जाते हैं; नौकरशाही वही रहती है।भूमिका में लेखक ने दिलचस्प लिखा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने5जनवरी,2019को पलामू में मंडल डैम का पुनः शिलान्यास कर दिया जबकि47वर्ष पूर्व उसी मंडल डैम का शिलान्यास किसी मुख्यमंत्री या मंत्री ने किया था पर मंडल डैम बना ही नहीं।नेता अधिकारी भ्रष्ट हो गये।भ्रष्टाचार अब दस्तूर हो गया।गुंजन सिन्हा लिखते हैं:"आठवें दशक के अंतिम वर्षों में भ्रष्ट वन अधिकारियों ने कुटकू डैम में पानी आया, पानी आया का शोर मचाया और हजारों पेड़ काट कर मिट्टी के भाव बेच डाला"।सारंडा वन के महाविनाश की चर्चा खंड-3में विस्तृत है।
    पुस्तक का आरंभ लेखक अपने मंदबुद्धि छोटे भाई मिट्ठू की कारूणिक स्थिति के हृदयस्पर्शी वर्णन से करते हैं।वहाँ माँ, पिताजी और दूसरे भाई की भी यथासंभव चर्चा है।लेखक का संवेदनशील मन छोटे भाई मिट्ठू की जिंदगी के बारे में डॉक्टर की घोषणा से आहत और विचलित है।उनका युवा मन जीवन और संसार की निरर्थकता में उलझा हुआ है।वन अधिकारी पिता के साथ वे चतरा जाते हैं।वहाँ जंगल के अप्रतिम सौंदर्य की तरलता में उनका नैराश्य घुल जाता है।'कुटकू ने क्या दिया मुझे'में लेखक शानदार भाषा में अपने अंत:का मनोवैज्ञानिक चित्रण करते हैं।

    "जंगल गाथा"छह खण्डों में प्रस्तुत है जिसमें55छोटे-छोटे कथा रिपोर्ताज़ समाहित हैं।यह कोई फिक्शन नहीं है, लेकिन पढ़ने में फिक्शन का मज़ा देता है।यह सामाजिक राजनीतिक सिस्टम का तथ्यगत रिपोर्ताज है जो पाठक की संवेदना को हिला कर रख देता है।सत्ता का क्रूर और पाखंडी चेहरा देखकर पाठक की ज्ञानात्मक संवेदना स्वाभाविक रूप में शोषितों-वंचितों-उत्पीड़ितों के साथ एकात्म महसूस करती है।"जंगल गाथा"की यही सार्थकता है।

       
 जितेंद्र कुमार, मदनजी का हाता,आरा




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