और…एक अपराध हो जाता”

सुरेश श्रीवास्तव की सद्य प्रकाशित संस्मरण उपन्यास
शैक्षणिक माहौल की गिरावट से प्रेरित होकर लिखा उपन्यास
पाँच दशकों के अवधि के उच्चशिक्षा की क्रमोत्तर पतनशीलता केंद्र में

एक आम जीवन में मिले खट्टे-मीठे अनुभवों और होनी-अनहोनी घटनाओं के साथ जीते रहना अपने आप में एक कहानी का प्रारूप है जिसे वह फुर्सत में टुकड़े-टुकड़े में याद करते खुद के भाग्य को सराहता एवं कोसता है. वहीं एक व्यक्ति इसे स्वीकारते,जीवन के आगे की राह पर नये उत्साह के साथ बढ़ते इसे लेखन के किसी विधा में रचने की कोशिश करता है. यही कोशिश मैंने अपने संस्मरण उपन्यास- “और…एक अपराध हो जाता” में रखने का दुस्साहस किया है.




उपन्यासकार सुरेश श्रीवास्तव

हिन्दी मेरे लिये परीक्षा का विषय बनकर रह गया था.विद्यार्थी जीवन में हिंदी का औसत से अधिक पाठक नहीं होने के कारण अभिव्यक्ति और शुद्ध लेखन से सहजता नहीं आ पाई। शिक्षक बराबर कुछ सीखने के चलते विद्यार्थी ही रहता है. जीवन की एक अप्रत्याशित घटना ने अवसाद के जाल से बाहर निकलने के लिए लेखन के किसी रूप में संकलित करना शुरू किया. अशुद्धियों को बेहिचक स्वीकारते कोशिश करता रहा. कई लोगों में ज्यादा कम उम्रवालों से सीखने और सुधरवाने में मदद के लिए शुक्रगुजार हूँ.

कुछ कवितायें,संक्षिप्त वृतांत एवं सामयिक आलेख तक ही सीमित रहा.”अनारकली ऑफ आरा” नाम की फिल्म देखने के बाद एवं उच्चशिक्षा और प्रशासनिक स्तर जातीय- राजनीतिक दखल से शैक्षणिक माहौल की गिरावट से प्रेरित होकर कुछ लिखने का मन बना.अध्ययन और अध्यापन जीवन के लगभग पाँच दशकों के अवधि के बीच विभिन्न पहलूओं को जिसने उच्चशिक्षा की क्रमोत्तर पतनशीलता के कारण बने हैं,उसे काल्पनिक कथानक एवं पात्रों के माध्यम से प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है.

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