श्रद्धांंजलि: उस्ताद बिस्मिल्लाह खां

By Amit Verma Mar 21, 2017

सुरों के शहंशाह उस्ताद बिस्मिल्लाह की जयंती पर विशेष




21 मार्च को उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के 101वें जन्मदिन पर पटना में राजकीय समारोह का आयोजन किया गया जिसमें बिहार के वित्त मंत्री अह्दुल बारी सिद्दीकी ने उन्हें श्रद्दा सुमन अर्पित किए. इस अवसर पर पटना के डीएम संजय कुमार अग्रवाल ने भी उस्ताद को श्रद्धांजलि दी.

शहनाई के शहंशाह भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्ला खां को मोक्षदायिनी गंगा से बेहद लगाव था. वे मानते थे कि उनकी शहनाई के सुरों में जब गंगा की धारा से उठती हवाएं टकराती थीं तो धुन और मनमोहक हो उठती थीं. यही वजह थी कि मुंबई जब बॉलीवुड की शक्ल ले रहा था तो उनके पास हमेशा के लिए वहीं बसने के प्रस्ताव आए, इस पर उस्ताद का एक ही जवाब होता था, अमा यार ले तो जाओगे, लेकिन वहां गंगा कहां से लाओगे. उस्ताद की जीवनी को किताब के पन्नों में समाहित करने वाले साहित्यकार मुरली श्रीवास्तव कहते हैं कि उस्ताद का गंगा से प्रेम उनकी गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक था.

डुमरांव में हुआ था जन्म
डुमरांव के बंधन पटवा मोहल्ले में पैगंबर खां व उनकी बेगम मिन के आंगन में 21 मार्च 1916 को किलकारी गूंजी। शिशु कमरूद्दीन को देखते ही उनके दादा के मुंह से निकला, बिस्मिल्लाह! बस यही उस शख्सियत का नाम हो गया जो आगे चलकर शहनाई के उस्ताद कहलाए. आठ साल की उम्र में वे अपने मामा के साथ वाराणसी चले गए और वहीं मां गंगा के तीरे शहनाई का रियाज कर पूरी दुनिया को भावविभोर किया. न्यूयार्क का वल्र्ड म्यूजिक इंस्टीट्यूट हो या केन्स का आर्ट्स फेस्टिवल, अधिकांश देशों के संगीत प्रेमी डुमरांव के लाल उस्ताद बिस्मिल्ला खां की शहनाई के जादू से अभिभूत हो चुके है. एक दुर्भाग्य यह है कि उस्ताद के पैतृक निवास डुमरांव में आज उनकी कोई निशानी नहीं है.

शहनाई को बनाया इबादत
भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्ला खां ने बचपन से ही शहनाई से प्रेम को इबादत बना लिया था. उन्हें संगीत की देवी सरस्वती की आराधना करने और गंगा घाट पर शहनाई बजाने से कभी परहेज नहीं रहा. डुमरांव के बांके बिहारी मंदिर में बचपन में आरती के समय शहनाई बजा अपनी विधा की शुरुआत करने वाले उस्ताद ने शहनाई को अंतर्राष्ट्रीय फलक तक पहुंचाने में लंबी साधना की. आज विश्व में शहनाई की लोकप्रियता को जो मुकाम हासिल है वह उन्हीं की देन है.


सुरों से किया आजादी का इस्तकबाल :
उस्ताद की शहनाई खुशहाली का प्रतीक थी. 15 अगस्त 1947 को देश स्वतंत्र हुआ और उन्मुक्त वातावरण की पहली बयार बही, तो फिजा में बिहार के लाल की शहनाई की धुन दिल्ली के लालकिले से गूूंजी. 26 जनवरी 1950 को जब देश गणतंत्र बना तब तत्कालीन राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के अनुरोध पर उस्ताद ने मौजूं का इस्तकबाल अपनी खास धुनों से किया.


कई पुरस्कारों से हुए सम्मानित
संगीत के क्षेत्र का कोई ऐसा सम्मान नहीं था, जो शहनाई सम्राट को नहीं मिला. उस्ताद को करीब से जानने वाले डुमरांव के साहित्यकार शंभूशरण नवीन कहते हैं कि उनका कद इतना ऊंचा था कि उनसे जुडऩे पर पुरस्कार का गौरव बढ़ जाता था. संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1956), पद्मश्री (1961), पद्वभूषण (1968), पद्व विभूषण (1980), तालार मौसिकी, इरान गणतंत्र (1992), फेलो ऑफ संगीत नाटक अकादमी (1994), भारत रत्न (2001) सहित सैकड़ों पुरस्कार उनकी झोली में आए. 21 अगस्त 2006 को 90 वर्ष की अवस्था में मां गंगा की गोद में बसे काशी में ही उस्ताद चिरनिद्रा में लीन हो गए.

 

बक्सर से ऋतुराज के साथ ब्यूरो रिपोर्ट

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