लुप्त हो रहे है परम्परागत पेशे और उनके उत्पाद

By pnc Oct 23, 2016

पर्यावरण संरक्षण में भी उपयोगी थे उत्पाद 

सभी एक ही बात कहते है कि समय बदल रहा है लेकिन वक्त के साथ बदल रही चीजों का जिक्र लोग बहुत कम करते है. जीवन में कई ऐसी चीजें हैं जो अब धीरे-धीरे लुप्त होती जारही हैं.अब कम ही कारीगर वैसे बचे है जो उन वस्तुओं को बनाते और बेचते थे.आधुनिक युग में वो चीजे अब नए स्वरुप में बिकने लगी है . कई चीजें गुम हो रही हैं. कुछ दिनों के बाद वे भी किस्से कहानियों का हिस्सा बन कर रह जाएंगी. जिन पेशों के सहारे लोग कभी रोज़ी रोटी चलाया करते थे, अब न उनके खरीददार बचे हैं और न पहले जैसे कारीगर. बाजार के अपने तौर तरीके हैं, यहां वहीं बच रहा है जो बदली हुई जरूरतों के हिसाब से खुद को ढाल रहा है लेकिन इस बदलाव में लोग पर्यावरण को भूलते जा रहे हैं.
पटना में बाहर से आकर कुछ लोग काम कर के अपने बाल बच्चों का पेट पालते थे . आज उनके रोज़ी-रोटी के कुछ ज़रिए, कुछ काम-धंधे तेज़ी आधुनिक समय के साथ दम तोड़ है . इसके साथ ही उन लोगों की आजीविका भी ख़तरे में पड़ गई है जो इन पारम्परिक पेशों से जुड़े हुए हैं. एक नज़र डालते हैं कुछ ऐसे ही पेशों और बनने वाले सामनों पर जो आज इक्का दुक्का कहीं  दिख जाते है जिनका उपयोग कभी शान हुआ करता था आज वो धीरे -धीरे हमारी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं.
image_247556तांगावाला या टमटम
अमिताभ बच्चन का मर्द तांगे वाला गीत हो या फिर ‘शोले’ में बसंती का तांगा आपको याद जरूर होगा. बात ज़्यादा पुरानी नहीं है जब क़स्बों और शहरों में तांगा यातायात का सस्ता और सुलभ साधन हुआ करता था. लोग इस तांगे या टमटम पर बैठ सवारी किया करते थे.  पटना में इनके लिए रेलवे स्टेशन पर एक पड़ाव भी हुआ करता था जिसे आज हटा दिया गया. तेज रफ़्तार के जीवन में ऑटो ने तांगे की जगह ले ली है.यही वजह है कि जहां तांगों की भरमार होती थी, वहां अब मुश्किल से ही तांगे नज़र आते हैं. ऐसे में एक पेशा पूरी तरह से ख़त्म होने की कगार पर पहुंच गया है.




 

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फटाफट फोटो

गांधी मैदान और बी एन कॉलेज के समीप कभी फटाफट फ़ोटो की कई दुकानें लगती थी. आज वे दुकानें डिजिटल युग में गायब हो गई है उसके फोटोग्राफर भी अब नहीं रहे. रहीम खान बताते हैं कि आज से कुछ  साल पहले अगर किसी को पासपोर्ट फ़ोटो की ज़रुरत होती थी तो वह कचहरी पहुँच जाता था या फिर कॉलेज के पास आ जाता था.  यहाँ कई फ़ोटोग्राफर मिल जाते थे जो ट्राईपॉड के ऊपर रखे डिब्बेवाले कैमरे के साथ खड़े रहते थे.
आदमी को कैमरे के सामने बिठाते थे और अपना सिर कैमरे के पीछे लगे काले कपडे में डाल देते थे फ़ोटो खींचने के लिए.  फ़ोटो खींचने के चंद पलों में फ़ोटो को डेवलप कर दिया जाता था और झटपट फ़ोटो निकाल कर दे दिए जाते थे.  इस व्यवसाय पर भी आधुनिकता की मार पड़ी अब भी फटाफट फोटो मिलते है लेकिन वे रंगीन और थोड़े महंगे होते हैं. समय बदल पोलराइड कैमरे आए अब पोलराइड भी अब बनने बंद हो गए उसकी जगह अब डिजिटल कैमरों ने ली है . कुछ स्टूडियो के सामने पुराना डिब्बेनुमा कैमरा आज भी मिल जाते है लेकिन वो महज एक शो पीस बन कर .
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खाने के पत्तल और दोने

कहते है की पत्तलों में खाना शुद्ध माना जाता था .शादी विवाह या किसी और तरह का आयोजन हो, गांव-देहातों में यहां तक की शहरों में भी खाने-पाने के लिएपहले दोना-पत्तल का इस्तेमाल आम होता था. लोग पात में बैठ कर एक साथ पत्तल पर खाना खाते थे .पर्यावरण के हिसाब से भी पत्तल बहुत कारगर थे.  कुछ दिनों के बाद वे सड़ कर खाद के रूप में परिवर्तित हो जाते थे. आज इसका भी चलन कम होता जा रहा है साथ ही जंगलों से पत्ते चुन कर पत्ते बनाने का काम भी खत्म हो गया. अब बाज़ार में उनकी जगह नई किस्म के मशीन से बनने वाले कागज़, थर्मोकोल और प्लास्टिक के सफ़ेद-चमकीले दोने-पत्तलों ने ले ली है. जो पर्यावरण के लिए भी नुक्सान देह है.
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कुल्हड़ और मिट्टी के बर्तन

पहले मिट्टी लाना उसे बर्तन बनाने के हिसाब से तैयार करना. उसे चाक पर चढ़ा कर उससे बर्तन बनाने का काम बड़े पैमाने पर पटना में होता था.पानी और चाय के लिए कुल्हड़ . दीये ,ढकनी घड़े सुराही और भी बहुत कुछ कुम्हार जाति के लोग बनाते थे पर आज प्लास्टिक उद्योग ने उनके परिवार के सामने बड़ी मुसीबतें  खड़ी कर दी है.शादी विवाह के मौके पर इन्हें बर्तनों के बदले कपड़े पैसे और अनाज भी मिलते थे जिससे इनका परिवार का भरण पोषण होता था. आज ये दीपावली के मौके पर चंद दीये और मिट्टी के कुछ बर्तन  बनाकर किसी प्रकार परम्परा का निर्वाह करते है. इनके दीये की जगह आज रंग बिरंगे बल्बों ने ले ली है.
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सिलवट – लोढ़ा
मसाले की जरुरत हर खाने में होती है और उसे पीसने के लिए सिलवट और लोढ़ा का उपयोग होता था . जो प्रत्येक घरों में होता था . देश के हर कोने में कुछ ख़ास जातियां दशकों से इस पेशे में लगी हैं. पटना में कानू जाति के लोगों के अलावा पहाड़ी लोग भी के इसी हुनर के ज़रिए अपना पेट पालते आए हैं. सिलवट पर बारीक खाने बनाये जाते थे फिर लोढ़े से उसकी कुटाई कर पानी डाल कर पीसने का काम होता था . 21वी सदी में मिक्सी के आ जाने से सिलवट और लोढ़ा का काम वैवाहिक आयोजनों में सिर्फ रस्म अदायगी के लिए बच गया है और इस व्यवसाय से जुड़े लोग भी दूसरे काम को करने के लिए मजबूर हैं.
 

bf59e1570868906955f0109ef93c1a6bटीन के बक्से
मायके से विदा हो कर ससुराल जाने वाली दुल्हन सुंदर नक्काशीदार बक्से पहले साथ लेकर जाती थी. उन बक्सों को गांव  जवार में देखने के  लिए भीड़ लग जाती थी . स्कूल जाने वाले बच्चे भी छोटे बक्से लेकर स्कूल जाते थे. बदलते वक्त में अब इनका कोई खरीदार नहीं बचा. ब्रांडेड कंपनियों वाले सूटकेस, ब्रीफ़केस और बैग ने इन बक्सों की जगह ले ली है. पहले लोहे की चादरों के बक्सों का चलन ज्यादा था पर आधुनिकता की मार इस पर भी पड़ी. छोटे-बड़े शहरों में थोड़े लोग बचे हैं, जो अब ऑर्डर पर टिन के छोटे-बड़े बक्से बनाते हैं. आज भी बैंकों में ऐसे बॉक्स का इस्तेमाल होता क्योंकि ये हल्के और सुरक्षित होते है.

 

खिलौना गाड़ी और बैल गाड़ी 
बिहार में लगभग सभी इलाकों में छोटे बच्चों का पहला खिलौना लकड़ी से बनी तीन चक्कों वाली गाड़ी ही हुआ करती थी .यह गाड़ी बच्चों के लिए ठीक से चलने में मददगार होती थी.उन दिनों वॉकर का चलन छोटे शहरों-कस्बों में नहीं था और इन्हीं गाड़ियों के सहारे बच्चे चलना भी सीखते थे.लकड़ी के बने होने के कारण सस्ते भी होते थे.आज भी डॉक्टर  सलाह देते कि बच्चों के ठीक से खड़ा होना और चलने के लिए तीन पहिये वाली लकड़ी की गाड़ी संतुलन बनाये रखने में काफी मददगार होती है.लकड़ी से बने कई चीजे अब प्लास्टिक से बनने लगी है. बैलगाड़ी भी अब कम बनती है. इन्हें बनाने और बेचने वाले बढ़ई अब थोड़े से रह गये हैं. गाँव गाँव में सड़कें बन गई है . रफ़्तार वाले वाहन आ गए है.जिससे इनकी मांग भी कम हो गई है.

वक्त और चीजों के स्वरुप को बदलने में देर नहीं लगती पर परंपरागत पेशे और कारोबार का संरक्षण भी बहुत जरूरी है.वर्ना धीरे धीरे ये वस्तुएं और इनके बनाने वाले कारीगर भी लुप्त हो जाएंगे.पटना में कई ऐसे व्यवसाय है जिस पर आधुनिकता की मार पड़ी है.जो आज चीख चीख कर अपने संरक्षण की मांग कर रहे है.

रवीन्द्र भारती 

By pnc

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