नीतीश के कूचे से बड़े बेआबरू होकर निकले ये दिग्गज

नीतीश कुमार की नीति के शिकार

आरसीपी सिंह पर आंख बंद कर विश्वास करते थे नीतीश कुमार




प्रशांत किशोर भी कहे जाने लगे थे नीतीश कुमार के राजनीतिक वारिस

उपेंद्र कुशवाहा तीन बार साथ आए, हर बार निराश होकर लौटे

शरद यादव को उम्र के आखिरी पड़ाव में थामना पड़ा आरजेडी का दामन

आखिरी समय में जॉर्ज फर्नांडिस की भी हुई थी फजीहत

समता पार्टी और उसके बाद जनता दल यूनाइटेड और अब नए नए दल का बनना .इस दल में कभी दिग्गज नेताओं का बोलबाला था लेकिन वक्त इस करवट बैठा जो दिग्गज थे आज फजीहत के बाद किनारे कर दिए गए बिसरा दिए गये.जॉर्ज फर्नांडिस न केवल जेडीयू बल्कि समता पार्टी के भी संस्थापक सदस्य थे. 2003 में उन्हें जदयू  का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया. जॉर्ज उस समय सर्वमान्य नेता थे, लेकिन चलती नीतीश कुमार की ही थी. इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते अपने किसी करीबी नेता को राज्यसभा का टिकट तक नहीं दे सकते थे. साल 2005 में जैसे ही नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने, पार्टी की कमान जॉर्ज फर्नांडिस की जगह शरद यादव को दे दी गई. स्थिति यह तक हो गई कि पार्टी के पैट्रॉन को लोकसभा का चुनाव निर्दलीय लड़ना पड़ा. हालांकि बाद में नीतीश कुमार ने उन्हें राज्यसभा भेजा.

शरद यादव की भी गिनती कभी सीएम नीतीश के सबसे पसंदीदा और करीबी नेता के रूप में होती थी. वे न केवल लंबे समय तक जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे बल्कि लंबे समय तक उन्हें एनडीए का संयोजक भी बनाया गया. 2017 में नीतीश कुमार ने महागठबंधन से अलग होकर भाजपा से हाथ मिलाया और एनडीए में शामिल होकर सरकार बना ली. तब नीतीश कुमार के इस फैसले से दोनों के बीच दूरियां बढ़ने लगी. उन्हें पार्टी से साइडलाइन कर दिया गया. नीतीश कुमार खुद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए. बाद में शरद यादव ने नीतीश के फैसले को वोट पर डाका बताया और जेडीयू छोड़ दी. उन्होंने अपनी नई पार्टी भी बनाई. राजनीति के अंतिम पड़ाव में उन्होंने आरजेडी के टिकट से चुनाव लड़ा.

बिहार की सियासत में दिग्विजय सिंह का अपना सियासी कद रहा है. समाजवादी राजनीति के बड़े चेहरे माने जाते थे. अटल सरकार में विदेश राज्यमंत्री रह चुके हैं और नीतीश कुमार के करीबी नेता माने जाते थे. 2009 के लोकसभा चुनाव में नीतीश ने दिग्विजय सिंह को बांका से टिकट नहीं दिया, जिसके बाद निर्दलीय चुनाव लड़कर जीतने में सफल रहे. हालांकि, इसके बाद खुद को स्थापित नहीं कर सके. ऐसे ही अली अनवर जेडीयू में कभी पसमांदा सियासत के मुस्लिम चेहरे थे, जो नीतीश के करीबी नेताओं में गिने जाते थे. नीतीश कुमार ने उन्हें राज्यसभा भेजा, लेकिन शरद यादव के साथ नजदीकियां बढ़ाई तो उन्हें भी बाहर का रास्ता दिखा दिया. अली अनवर बिहार की सियासत में पूरी तरह से गुमनाम जिंदगी जी रहे हैं.

जेडीयू में कभी आरसीपी सिंह को नीतीश कुमार का सबसे करीबी और भरोसेमंद नेता कहा जाता था. नीतीश कुमार के बाद पार्टी में किसी की चलती थी तो वे आरसीपी सिंह थे. नीतीश कुमार, आरसीपी सिंह पर कितना भरोसा करते थे इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि उन्होंने अपने बाद पहली बार किसी को पार्टी की कमान दी तो वे आरसीपी सिंह ही थे. 2020 में उन्हें जेडीयू का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया. इतना ही नहीं आरसीपी सिंह को ब्यूरोक्रेट से राजनेता बनाने का श्रेय भी नीतीश कुमार को ही जाता है. आरसीपी सिंह जेडीयू में रहते हुए दो-दो बार राज्यसभा के सांसद बने. केंद्र में में मंत्री बने. लेकिन जैसे ही उन्होंने पार्टी पर अपनी पकड़ मजबूत करनी शुरू की, उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.

चुनावी रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर को 2018 में पहले जेडीयू का सदस्य बनाया गया. इसके बाद उन्हें सीधा जेडीयू का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया गया. खुद नीतीश कुमार ने इसकी घोषणा की. उस दौरान उन्हें जेडीयू में नीतीश कुमार का वारिस भी कहा जाने लगा था. सीधा राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाए जाने पर ऐसा कहा जाने लगा था कि नीतीश कुमार के बाद पार्टी का कोई भी फैसला प्रशांत किशोर ही लेंगे. खबरें तो यहां तक आने लगी थी कि 2019 के लोकसभा चुनाव से संबंधित सारा फैसला प्रशांत किशोर ही लेंगे. इन खबरों के बाद प्रशांत किशोर का कद अचानक बिहार की सियासत में बढ़ने लगा. बैकडोर पॉलिटिक्स करने वाले प्रशांत किशोर अचानक मुखर होकर बयान देने लगे. इसके बाद हालात ये बने कि दो साल के भीतर 2020 में उन्हें पार्टी से अपना इस्तीफा देना पड़ा.

सबसे ताजा मामला उपेंद्र कुशवाहा का है. नीतीश कुमार और उपेंद्र कुशवाहा की करीबियत का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि 2009 में नीतीश कुमार ने सार्वजनिक मंच से कुशवाहा को जेडीयू में शामिल हो जाने का आग्रह किया था. नीतीश कुमार ने न केवल उपेंद्र कुशवाहा को सबसे युवा विधायक होने के बाद भी विधानसभा में विपक्ष नेता बनाया, बल्कि उन्हें राज्यसभा सांसद भी बनाया. साल 2021 में जब उपेंद्र कुशवाहा तीसरी बार पार्टी में शामिल हुए तो उन्हें विधान परिषद का सदस्य बनाने के साथ जेडीयू संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष भी बनाया. लेकिन इस बीच उपेंद्र कुशवाहा खुद को जेडीयू में नंबर-2 प्रोजेक्ट करने लगे. कभी डिप्टी सीएम तो कभी मिनिस्टर बनने का बयान देने लगे. इसके बाद उन्हें पार्टी से किनारे कर दिया गया और मजबूरन उन्हें भी पार्टी से इस्तीफा देना पड़ा. अब उन्होने दूसरी बार अपनी नई पार्टी बना ली हैं.

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