मिथिला में शास्त्रार्थ परंपरा की पुनर्वापसी

बिहार के मधुबनी में चल रहे नौ दिवसीय सौराठ सभा में मिथिलालोक फाउंडेशन द्वारा मिथिला की प्राचीन शास्त्रार्थ परंपरा को पुनर्जीवित करते हुए एक संगोष्ठी के जरिए बौद्धिक-विमर्श की शुरुआत की गई. इस विमर्श में मिथिला क्षेत्र के अनेक लब्धप्रतिष्ठित विद्वानों ने विभिन्न समसामयिक विषयों पर न केवल विचार-विमर्श किया बल्कि इस परंपरा को आगे बढ़ाने का संकल्प भी लिया. इस साल सौराठ सभा के उद्घाटन कार्यक्रम में ही मिथिलालोक फाउंडेशन के चेयरमैन डॉ. बीरबल झा ने शास्त्रार्थ परंपरा को पुनः शुरू करने का आह्वान किया था.

उल्लेखनीय है कि मिथिला में शास्त्रार्थ की परंपरा हज़ारों साल पुरानी है जब देश के विभिन्न क्षेत्रों के विद्वान धर्म, न्याय, नीति, समाज व अन्य प्रासंगिक विषयों पर एकजुट होकर विचार-विमर्श किया करते थे और इस संगोष्ठी से निकले निष्कर्ष को समूचे देश में स्वीकार किया जाता था. इसी परंपरा के तहत यहाँ 8 वीं सदी में हुआ मंडन मिश्र के साथ आदि शंकराचार्य का शास्त्रार्थ बहुत प्रसिद्ध है जिसने न केवल भारतीय चिंतनधारा को बदलकर रख दिया था बल्कि इस शास्त्रार्थ में शंकराचार्य की विजय ने भारत को कर्मकांड से ज्ञानकांड की तरफ मोड़ दिया. यह शास्त्रार्थ कितना महत्वपूर्ण था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज भी भारतीय जनमानस में इसकी स्मृति बनी हुई है. असल में, इस देश में वैचारिक मतभेद कभी संघर्ष या टकराहट में नहीं तबदील हो सके, तो इसका बड़ा कारण यही था कि लोग विचार-विमर्श करने और एक दूसरे के पक्षों को समझने के लिए तत्पर रहते थे.




आज देश में जब एक बार पुनः वैचारिक आग्रह व टकराहट की स्थिति बनती नज़र आ रही है तब शास्त्रार्थ परंपरा के माध्यम से परस्पर संवाद कायम करने की जरुरत बढ़ गयी है। ऐसे में सौराठ सभा का यह आयोजन ऐतिहासिक महत्व का है. इस बार शास्त्रार्थ परंपरा की शुरुआत ‘वर्तमान विवाह संस्था और सौराठ सभा’ विषय से हुई जिसमें कई विद्वानों ने हिस्सा लेकर अपने विचार रखे.

संगोष्ठी की अध्यक्षता कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. रामचंद्र झा ने की. इसमें भाग लेने वाले विद्वानों में पं. रामसेवक झा, डॉ. गोपाल ठाकुर, पं. रुपेश कुमार झा, पं. राकेश रौशन चौधरी, पं. अखिलेश मिश्रा, पं. दीपक वत्स और पं. धीरज कुमार शास्त्री आदि प्रमुख रहे। संगोष्ठी में भागीदारी करते हुए डॉ. बीरबल झा ने कहा कि शास्त्रार्थ से ही गूढ़ तत्व निकलते हैं और इसी से शंका और संशय का समाधान होता है,  इसलिए शास्त्रार्थ विधा को संरक्षित रखना हम सबका दायित्व है. यह परम्परा मैथिलवासियों की बौद्धिकता और तर्क-वितर्क की अदम्य क्षमता को प्रदर्शित करता है जो वस्तुतः भारतीय संस्कृति का भी उज्ज्वल पक्ष रहा है। हमें अगली पीढ़ी के लिए भी इस परंपरा का संरक्षण जरूरी है.

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