कवि बलभद्र की भोजपुरी संग्रह ‘कब कहलीं हम’ पर चर्चा का आयोजन

By pnc Nov 1, 2016

आवअ ए मल्टीनेशनल घास!

वर्तमान व्यवस्था को रेखांकित करती है कवि बलभद्र की कविता




बदलते समय, शहरीकरण और भूमंडलीकरण ने गाँवों को भी बहुत गहरे स्तर पर प्रभावित किया है

जनगीतकार –कथाकार विजेंद्र अनिल के स्मृति दिवस के मौके पर जन संस्कृति मंच{जनभाषा समूह } की ओर से आरा के नागरीप्रचारिणी पुस्तकालय में कवि बलभद्र के भोजपुरी संग्रह ‘कब कहलीं हम ‘ पर बातचीत का आयोजन 3 नवंबर को किया गया है. कवि बलभद्र के इस कविता संग्रह पर साहित्यकार सुमन कुमार सिंह कहते हैं कि कब कहलीं हम’ के रूप में बलभद्र का पहला भोजपुरी काव्य-संग्रह प्रकाश में आया है.

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भोजपुरी कविताओं में ऐसी समृद्धि, ऐसी पूर्णता बहुत कम देखने को मिल रही है. हमारी कृषि संस्कृति और किसान–मजदूरों के ऊपर नित नए अनचाहे संकट घिरते जा रहे हैं. कर्ज-अभावों से त्रस्त किसान एक ओर जहाँ आजीविका हेतु पलायन कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर आत्म-हत्या तक को विवश हैं. यह संकट जितना किसानों का है उतना हीं उनकी धरती का भी होते जा रहा है/ प्रकृति और पर्यावरण का भी होते जा रहा है धरती लगातार अनुर्वर होते जा रही है……कवि को किसान-मजदूरों, बेरोजगारों, स्त्रियों आदि की जो पीड़ा परेशान करती है, उसके लिए वह किसी एक को दोषी नहीं मानता. वह इसे व्यवस्थागत दोष मानता है और इसीलिए वर्तमान व्यवस्था को बदलने की बात करता है. बलभद्र मूलतः गंवई संवेदना या और स्पष्ट कहें तो किसान संवेदना के कवि हैं. गंवई संवेदना जिसमें सहकारिता है. जहाँ पर मन में सबके लिए सम्मान है. जहां अन्याय का सीधा प्रतिकार कर सकने का साहस है. तमाम खामियों के बावजूद जिसमें आत्मीयता बची हुई है. लेकिन बदलते समय, शहरीकरण और भूमंडलीकरण ने गाँवों को भी बहुत गहरे स्तर पर प्रभावित किया है. अब गाँव नवहों से खाली होने लगे हैं. अब गाँवों के किसानों के खेत पूंजीपतियों के हाथ में बिकते जा रहे हैं. बलभद्र में गंवई रोमान नहीं है बल्कि खांटीपन है, जो अन्यत्र बहुत दुर्लभ है. इस आशय की जानकारी देते हुए साहित्यकार और रंगकर्मी सुधीर सुमन ने बताया कि इस आयोजन के पीछे वर्तमान व्यवस्था में ऐसी कविताओं पर बातें होनी चाहिए जिससे कुछ निकल कर सामने आ सके .कार्यक्रम में कई साहित्यकार शिरकत कर रहे हैं.

“गाँव जइसे खाली होत जा रहल बा नवहन से                                     img-20160411-wa0004_001

खाली होत जा रहल बा खेतो-बधार

एह जिया-जन्तुवन से

हमनी के चहला,न चहला के

नइखे रह गइल कवनो माने-मतलब

कवना तरह के विकास के दौर में आ फँसलीं जा

कि सरसों के फूल से डेराये लगली स तितली

कि जनेरा के बालियन से गायब होखे लागल दाना

केकर हउए ई सराप

कि हमनी के खेतन के तोपले जा रहल बा बेहिसाब

 मल्टीनेशनल घास।”

“कब कहली हम

कि आवअ, आवअ ए मल्टीनेशनल घास!

ए अमरीकी खर-पतवार!         

आवअ, हमरा खेतन के तोपअ, पसरअ

पछाड़अ हमरा फसलन के

हमरा घासन के पछाड़अ

आवअ आ हमरा मुलुक के छाती प जमअ

जमअ आ राज करअ

कब कहली हम

कब कहली।”

 

 

By pnc

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