…वर्ना फिल्‍म पॉलिसी डॉक्‍यूमेंट में सिमट कर रह जाएगा- प्रवीण कुमार

By pnc Dec 14, 2016

बिहार राज्‍य फिल्‍म विकास एवं वित्त निगम और कला संस्‍कृति विभाग, बिहार के संयुक्‍त तत्‍वावधान आयोजित पटना फिल्‍म फे‍स्टिवल 2016 के पांचवे दिन रिजेंट सिनेमा में लिसन अमाया, द हेड हंटर और यंग सोफी बेल फिल्‍म का प्रदर्शन हुआ. वहीं, रविंद्र भवन के दूसरे स्‍क्रीन पर भोजपुरी फिल्‍म सैंया सिपहिया, कब होई गवना हमार और खगड़िया वाली भौजी दिखाई. इसके अलावा तीसरे स्‍क्रीन पर परशॉर्ट एवं डॉक्‍यमेंट्री फिल्‍मों भी दिखाई गई.

 




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फिल्‍म फेस्टिवल में बिहार में फिल्‍म मेकिंग की संभावना और फिल्‍मी गीतों में फोक इलिमेंटस विषय पर विस्‍तार से चर्चा हुई. वहीं, रविंद्र भवन में ओपन हाउस डिस्कशन  में भोजपुरी सुपर स्‍टार समेत अन्‍य अतिथियों ने दर्शकों के सवाल का जवाब दिया. अंत में सभी अतिथियों को बिहार राज्‍य फिल्‍म विकास एवं वित्त निगम के एमडी गंगा कुमार ने शॉल और स्‍मृति चिन्‍ह देकर सम्‍मानित किया. इस दौरान बिहार राज्‍य फिल्‍म विकास एवं वित्त निगम की विशेष कार्य पदाधिकारी शांति व्रत भट्टाचार्य, अभिनेता विनीत कुमार,लेखक निर्देशक जितेन्द्र सुमन,  फिल्‍म समीक्षक विनोद अनुपम, मनोज राणा, अजीत अकेला, फिल्‍म फेस्टिवल के संयोजक कुमार रविकांत, मीडिया प्रभारी रंजन सिन्‍हा मौजूद रहे.

बिहार में फिल्‍म मेकिंग की संभावनाएं

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विकास चंद्रा (यश राज कंपनी से जुड़े हैं. लिसन अमाया का संवाद लिखा) – फिल्‍म मेकिंग के लिए बहुत सारी सुविधाओं का होना अनिवार्य है. तभी फिल्‍म मेकर आपके लोकेशन  को चुनेंगे. प्रकाश झा ने बिहार की कहानी पर कई फिल्‍में बनाई, मगर उनकी लोकेशन  भोपाल, इंदौर जैसे शहर रहे, क्‍योंकि वहां उन्‍हें सारी सुविधाएं उपलब्‍ध होती हैं. फिल्‍म निर्माण के लिए स्‍थानीय तौर पर इंफ्रस्‍ट्ररक्‍चर काफी मायने रखता है. तभी निर्माता ऐसे जगहों पर फिल्‍म शूट करने के लिए तैयार होते हैं. उन्‍होंने कहा कि फिल्‍मों का कल्‍चर रातों – रात चेंज हो जाता है. इसलिए लोकेसंस के हिसाब से फिल्‍म की कहानियां भी मायने रखती हैं. स्‍थानीय कहानी से लोगों जुड़ाव होता है. इसलिए आज के दौर में किसी भी राज्‍य में फिल्‍मों के विकास इंटरनल स्‍टोरीज को समाने लाने की भी जरूरत है.

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प्रवीण कुमार (अवार्ड विनिंग सिनेमा नैना जोगिन के मेकर) – फिल्‍म मेकिंग के लिए आर्थिक माहौल का होना भी जरूरी है, जो अभी बिहार में नहीं है. सत्तर के दशक तक ग्रामीण परिवेश और बिहार के कैरेक्‍टर दिखते थे. लेकिन इसके बाद बिहार में आर्थिक पतन शुरू हुआ. बेरोजगारी और पलायन बढे. इसका नुकसान सांस्‍कृतिक गतिविधियों को भी हुआ. लेकिन आज बिहार सरकार फिल्‍म पॉलिसी ला रही है. इसे प्रक्रिया को प्राथमिकता देते हुए और तेजी लाने की जरूरत है, वरना फिल्‍म पॉलिसी डॉक्‍यूमेंट में सिमट कर रह जाएगा.

मैं खुद बिहार में फिल्‍म बनाना चाहूंगा.

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सुमन सिन्‍हा (रीजेंट सिनेमा के ऑनर) – आज भी कंटेंट ही सिनेमा चलाती है. हम कंटेंट के हिसाब से तय करते हैं कि सिनेमा देखने लायक है या नहीं. एक मैथिली फिल्‍म का उदाहरण देते हुए कहा – अगर क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्‍मों में भी मुंबई दिखाई जाएगी, तो जाहिर सी बात है लोग फिल्‍म से खुद को जोड़ नहीं पाएंगे. मैं 32 सालों से देख रहा हूं कि कंटेंट और अच्‍छी संगीत वाली फिल्‍में ही लोगों को पसंद आती है. हाल ही रिलीज फिल्‍म बेफिक्रे यश राज के स्‍टैंडर्ड से मैच नहीं करती है. इंडिया के दर्शक आज भी कंटेंट के भूखे हैं. इसलिए फिल्‍म मेकरों से गुजारिश है कि ईमानदार जिद्द के साथ कंटेंट बेस्‍ड फिल्‍म बनाएं, हम सहयोग करेंगे.

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विनोद अनुपम ( फिल्‍म समीक्षक और चर्चा के मॉडरेटर) – सिनेमा में बिहार है, मगर बिहार में सिनेमा नहीं दिखती है. हालांकि अपुष्‍ट प्रमाण के आधार पर फिल्‍म निर्माण की प्रक्रिया बिहार में पुरानी है. जब दादा साहब फाल्‍के फिल्‍म बना रहे थे, उस दौर में यहां राजदेव भी फिल्‍म निर्माण की प्रक्रिया से जुडे थे. हिंदी सिनेमा में फिल्‍म तीसरी कसम को बिहार का प्रतिनिधि सिनेमा कहा जा सकता है. आज आर्थिक चाइलेंज भी बिहार में फिल्‍म मेकिंग की राह में एक बाधक है. इसलिए सिनेमा में बिहार भौगोलिक रूप से नहीं दिखता है, मगर स्‍क्रीन पर जरूर दिखता है.

फिल्‍मी गानों में लोक तत्‍व

शैलेंद्र शीली (उड़ता पंजाब) – आज सिनेमा की पहचान है कि संगीत. इसलिए मेरी कोशिश होती है सकारात्‍मक गीत लिखा जाए. फोक संगीत को अगर लोगों तक पहुंचाना है तो उसका बड़ा जरिया सिनेमा ही है. लोक संगीत मेरे लिए एक सामान्‍य प्रक्रिया है. मेरे लिखे गानों में मुहावरे, लोक संगीत जैसे तत्‍व का प्रभाव रहता है. अक्‍सर अपने गानों में उर्दू और पंजाबी की झलक मिलती है. मैं लोक तत्‍व और संगीत को जीता हूं, इसलिए शायद अपने गीतों में इनका प्रभाव रोक नहीं पाता. अगर देखा जाए तो हिंदी गानों में लोकगीत के मिश्रण को लोग पसंद भी करते हैं. उन्‍होंने कहा कि बांबे में लोगों की सबसे बड़ी त्रासदी है कि उन्‍हें हिंदी नहीं आती है. हम उस दौर में हैं, जहां लोग शब्‍दकोष नहीं पलटते. बड़े – बूढों से कहानी नहीं सुनते. इसलिए आज कुछ गानों में लीक से हटे नजर आते हैं. हमें गानों को लिखते समय सिचुएशन को भी ध्‍यान में रखना होता है. वहीं, सिनेमा क्रियेटिव‍िटी के साथ कॉमर्स भी है. संगीत से बहुत पैसे आते हैं, इसलिए प्रोड्यूसर पर भी निर्भर करता है.

प्रशंत इंगोले (बाजीराव मस्‍तानी) – हिंदी सिनेमा में फोक एलिमेंट निर्भर करता है फिल्‍म की कहानी और सिचुएशन पर. आज फिल्‍मों में एक फॉर्मूला बन गया है आइटम, रोमांटिक, सैड और पार्टी सौंग, ताकि संगीत को बेचा जाए. म्‍यूजिक इंडस्‍ट्री किसी भी तरह के सिनेमा का फेस है. कुछ लोगों लीक से भटक जाते हैं और जबरदस्‍ती म्‍यूजिक इंसर्ट कर देते हैं. कभी – कभी ऐसा हमें मजबूरी में भी करना पड़ता है. मगर विशाल भारद्वाज, इम्तियाज अली, आशुतोष गोवारिकर, संजय लीला भंसाली जैसे निर्देशक फिल्‍मों में गानों को आसानी से जस्टिफाइ कर लेते हैं. सकारात्‍मक जिद्द होने से रचनात्‍मकता आती है. इसलिए अपने सेल्‍फ रिस्‍पेक्‍ट को छो‍डे बिना, अपने अंदाज में, उनको जो चाहिए वो देना चाहिए. एक अच्‍छे लिरिसिस्‍ट को खुद की पहचान बना कर रखनी होती है.डॉ विनय कुमार (साहित्‍यकार) ने इस परिचर्चा में मॉडरेटर की भूमिका निभाई.

ओपेन हाउस डिस्कशन 

रवि किशन (भोजपुरी सुपर स्‍टार)– भोजपुरी इंडस्‍ट्री की गरिमा पर कुछ अनपढ़ लोगों की वजह से सवाल उठते हैं. लोग अध्‍ययन कम करते हैं. इसलिए अच्‍छी स्‍टोरी के अभाव का असर भोजपुरी फिल्‍मों पर पड़ता है. इसके अलावा बजट भी एक बड़ी समस्‍या है. हालांकि भोजपुरी इंडस्‍ट्री में जुनून और जज्‍बा तो है, मगर सपोर्ट और संसाधन नहीं है. अब बिहार सरकार ने इस ओर पहल की है तो हमें इससे काफी सहायता मिलेगी. भोजुपरी में भी अच्‍छी फिल्‍में बनती है. लेकिन अब जरूरत है एक सैराट जैसी फिल्‍मों की, जो फिर से भोजपुरी के प्रति लोगों का नजरिया बदल सके. उन्‍होंने अश्‍लीलता के बारे में कहा कि दूसरी भाषाओं में भोजपुरी से भी ज्‍यादा फू‍हड़ फिल्‍में बनती है, लेकिन कोसा भोजपुरी को ही जाता है. उनकी फिल्‍मों को कला केे नजरिए से देखा जाता है. हां कुछ बेकार लोग हैं, जिसके कारण भोजपुरी सिनेमा बदनाम हुई. इसकी एक और वजह यहां ईगो की समस्‍या भी. जो भोजपुरी इंडस्‍ट्री के लिए सही नहीं कहा जा सकता है. उन्‍होंने रंगमंच में पर कहा कि अगर अभिनय के क्षेत्र में लंबे समय तक रहना है तो सबसे अच्‍छी पाठशाला रंगमंच है. एक कलाकार को अपने अभिनय के प्रति पूर्ण रूप से समर्पि‍त करना पड़ा है, तभी वे मंझे हुए अभिनेता बन सकते हैं. उन्‍होंने कहा कि अगर सिनेमा थियेटर की हालत सुधर जाए, तो यह भोजपुरी सिनेमा के लिए अच्‍छा होगा.

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आनंद डी धटराज (राष्‍ट्रीय पुरूस्‍कार विजेता निर्देशक 2007) – पटना फिल्‍म फेस्टिवल में भोजपुरी फिल्‍मों को जगह मिलने से हम काफह उत्‍साहित हैं और इसके लिए सरकार और आयोजक को आभार. हम उम्‍मीद करते हैं सरकार क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने के लिए सिनेमा हॉल और मल्‍टीप्‍लेक्‍स में भी रियाद करेगी.

चर्चा के दौरान विधायक और फिल्‍म निर्माता संजय यादव – हम अपनी मातृ भाषा को प्‍यार करते हैं. बॉलीवुड के बाद भोजपुरी पहली फिल्‍म है जो दस स्‍टेट से ज्‍यादा जगहों पर देखा जाता है. उन्‍होंने कहा कि हम एनालिसिस में जल्‍दबाजी करते हैं और बिना देखे ही भोजपुरी फिल्‍मों के प्रति एक समझ बना लेते हैं. यह सही नहीं है. यह सही है कि भोजपुरी भाषा के शब्‍द ही दोअर्थी होते हैं, इसलिए इसका गलत मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए.

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