वह ‘गाँव’ जहाँ एक ही चापाकल से चलता है काम…

By om prakash pandey May 14, 2019

एकौना-
जहां एक चापाकल से पूरे गांव का काम चलता है




आरा, 14 मई. गंगा से गंगोत्री तक पिछले पांच सालों में 4 बार पैदल और साइकिल से यात्रा कर चुके प्रख्यात कवि, लेखक और पत्रकार निलय उपाध्याय निरन्तर जल को लेकर चिंतित हैं. उनकी यात्राएँ प्रकृति को उसके मूल रूप में लाने के लिए है. उन्होंने अभी हाल में भोजपुर के संगम बिंदगांवा से लेकर बक्सर तक गंगा के तटीय इलाकों का भ्रमण किया और आर्सेनिक की समस्या को लेकर लोगों की समस्याओं से रूबरू हुए और लोगों को जागरूक किया. उनकी इस यात्रा से मिले अनुभवों को हम आपके सामने हर दिन लाने की कोशिस करेंगे. आज जानिए भोजपुर में बसे उस गांव की दास्तान जहां पूरे गांव का काम मात्र एक चापाकल के भरोसे ही चलता है.. patna now Exclusive

समय से हम एकौना आ गए।
एक मोटर सायकिल और तीन लोग। सडक ठीक थी और कहीं कहीं इतनी खराब कि कहना मुश्किल।उपर से समान और आर्सेनिक का पर्चा भी। राह में पर्चा बांटते आए। जो मिला बात करते आए। हर जगह आर्सेनिक का हाल पूछते आए। एक ही किस्सा दुहराया जाता। बर्तन में रात भर पानी छोड दो तो पीला हो जाता है। इस पानी से कपडा साफ़ नहीं होता। इलाज कराने गए तो कैंसर निकल गया। और अंत में आप ही बताईए न हम क्या करे?
पेड पौधों में नेताओं की तरह गजब की हरियाली थी मगर अभिशप्त।
खेत कटने के बाद खलिहान लदे थे और दाने भी पुष्ट थे पर आरसेनिक का शाप उन्हें भी लग चुका था। जो कुछ उम्मीद से भरा दिखता,आर्सेनिक कल्पना मे आकर वहां ग्रहण लगा देता और मन छोटा हो जाता।

इस इलाके को दीयर का इलाका कहते है।
यहां हर साल बाढ आती और सबकुछ धो पोछ कर ले जाती मगर जीने का हौसला कम नहीं होता था। इस इलाके में एक गांव था नेकनाम टोला। उसके बारे में कहा जाता कि वह मछली की पीठ पर बसा है। कुछ लोग कहते कि वहां एक मंदिर था जो मछली की पीठ पर बसा था । मछली की पीठ पर गांव बसा हो या मंदिर नहीं पता पर यह पता है कि एक साल बाढ आई और मछली को लेकर चली गई। आज वहां रेत है और गंगा की जल धार।कट कर गंगा की धारा में समाने वाला वह अकेला गांव नहीं था। आज उन दर्जनों गांवो का कोई नाम लेने वाला नहीं बचा। पहले यह इलाका बहुत उपजाउ था। बाढ के बाद गंगा हर साल जो मिट्टी छोडकर जाती उसमें गजब की फ़सल होती। फ़सल एक होती पर मन मना देती। यहां के परवल और गोभी से अलग तरह की गंध आती और बाजार में उसकी कीमत भी मिलती।
बाढ से बचने लिए सरकार ने बांध बना दिया। अब बाढ नहीं आती। लोग दो फ़सल काटते है पर वह मजा नहीं आता जो बाढ की बदली हुई मिट्टी की फ़सल में था। सडक उसी बांध पर बनी थी और उसी से हम एकौना आ गए।एकौना में सडक से नीचे लुढके और गांव में आ गए। हमें वहां के प्रधान के घर रूकना था।

निर्मल सिंह ने स्थान तय किया था।
प्रधान को इस इलाके में मुखिया कहते है। हमें जानना था कि पंचायत के स्तर का जन प्रतिनिधि आर्सेनिक के बारे में क्या सोच रखता है और क्या कारवाई कर रहा है। हमारे मुखिया जी अतिथि देवो भव मानने वाले थे, हमारी सेवा के लिए दोनों हाथ जोडे तैयार थे पर वहां अर्सेनिक की कोई चेतना नहीं थी।अर्सेनिक के प्रति बेपरवाह थे। हमने उन्हे समझाने की कोशिश की पर वह उत्साह न जगा सके जिसकी हमें जरूरत थी।
आप यहां के प्रधान हैं।
जी।
अर्सेनिक संकट है।
जी
क्या कभी बैठकों में यह बात आई कि हमें शुद्ध जल चाहिए।
वे चुप रहे।
क्या कभी बैठकों में यह बात आई कि हमें बीमार लोगो के लिए दवा चाहिए।
वे चुप रहे।
क्या कभी बैठकों में यह बात आई कि इस क्षेत्र को आपदा क्षेत्र घोषित करना चाहिए। धरती के भीतर का पानी उलीचने के लिए कृषि क्रांति और हरित क्रांति ने यहां के अन्दर का जल उलीच दिया है। गंगा में नाला सरकार गिराती है। यह इलाका प्राकृतिक आपदा का शिकार है,इसे प्राकृतिक आपदा क्षेत्र घोषित करना चाहिए। ये सवाल आप पंचायत की और ब्लाक स्तर पर होने वाली बैठको में उठा सकते है।
चाय बनवा दे?
जब बात गंभीर होती वे चाय के पूछने लगते। हलवा के लिए पूछने लगते। कुछ देर तक बाते चली। ज्यादातर बातें चुनाव की होती जिसे घुमाकर हम आर्सेनिक पर आते।। कुछ देर की बात चीत के बीच जब उनका नौकर सायकिल के पीछे एक बीस लीटर का पानी डब्बा बांध कर आता दिखा।
यह क्या है?
पानी।
हमे उन्होंने उस चमत्कारी चापाकल के बताया जिसमें अर्सेनिक नहीं है। उसी चापाकल से उनके घर का पानी आता था। उनका दावा था कि यह बात जांच में प्रमाणित हुई है। आप लोगों को भी उसे देख लेना चाहिए। उनसे बातचीत में कुछ शेष नहीं था। यह काम आज ही निपटा लेना चाहिए।हम शाम को ही वहां देखने चले गए।

वह चापाकल काली माई के मंदिर के पास है।
शाम की रोशनी में सडक चम चम चमक रही थी। आस पास के घर बहुत बडे थे और दूर से महल की तरह दिखते। सडक जहां मुडी वहां नारा की तरह था मगर उसमें पानी नहीं था। किसी ने बताया कि गंगा की धारा पहले यहां से गुजरती थी। मुडने के बाद हरिजन टोली आ गई। एक पीपल का बडा पेड दिखा. मंदिर दिखा और लोगों की भीड में चापाकल खो गया था।
सुवह शाम वहां लंबी कतार लगती है। दोपहर में लोग कम होते है।
हम गए तो वहां कतार थी। यह बात अलग थी कि वहां लोग कतार में नहीं थे,उनके डब्बे होते जिसमें पानी लेना है। पानी लेने आए लोगो में मर्द थे औरते थी और डब्बे को कतार में लगा कर आपस में गप्प कर रहे थे। औरतों की संख्या ज्यादा थी । यह चापाकल गांव के लोगों का मिलन बिंदु बन गया था।
हमने वहां जाकर पर्चा बांटा और बताया कि कल गांव में पर्चा बांटने निकलेंगे।
एक लडके से पूछा-इस चापाकल में अर्सेनिक क्यों नहीं है?
धरती के ४०० फ़ीट नीचे तक गडा है। मतलब ४०० फ़ीट नीचे का पानी अर्सेनिक मुक्त है।
इस लेबल तक चापाकल गलाने में कितना खर्च आता है।
कम से कम पांच लाख।
समझ में आ गया कि यह आम लोगों के बूते के बाहर है। हमने उस चापाकल का एक चुल्लू जल पीने की इच्छा जाहिर की और कतार तोड कर हमने जल पी लिया। चापाकल के तल का पत्थर लाल था मतलब आर्सेनिक है। हाथ में जल आते ही उसका रंग देखा। समझ में आ गया कि यह भ्रम था ,हमने पानी पीकर देखा और महसूस किया कि उसमे अर्सेनिक की मात्रा थी और भरपूर थी। वहां से लौटते हुए हम बीर बहादुर सिंह के घर गए जो कुछ साल पहले जिला परिषद के सदस्य थे और पूर्व परिचित थे। वहां कुछ देर रूके और जायजा लिया।
बीर बहादुर सिंह ने गांव की राजनीति के बारे में बताया। रोंगटे खडे होने वाला यथार्थ सामने आया। जब से पंचायती राज कायम हुआ है तब से गांव जैसे समाप्त हो गया। वह भाव जो गांव में एक दूसरे के प्रति होता था समाप्त हो चुका है। उनका मानना था कि हम अच्छा काम कर रहे है पर इसका समय नहीं है।
उन्होंने पूछा-मैं आपके लिए क्या करू?
लगा कि वे हमारा आर्थिक सहयोग करना चाहते है।
हमारा अगला पडाव सिन्हा होगा,वहां रहने की व्यवस्था कर दीजिए।
उन्होंने अपने किसी मित्र को फ़ोन किया और अगले दिन सिन्हा में रहने का इंतजाम हो गया।यह भी तय हो गया कि उनका कोई आदमी हमें मोटर सायकिल से सिन्हा छोड देगा। निर्मल सिंह ने कहा कि मुखिया जी से उनकी बात हो गई है। वे छोडवा देंगे। यहीं नहीं वे सुवह में गंगा स्नान भी करवाऎंगे। दिन में वे आरा चले जाऎंगे और स्थानीय होटल में लडकी दिखाऎंगे। यह बात चुभ गई कि अब गांव में लडकी देखने वालों को नहीं बुलाया जाता।इस एक घटना में बहुत सारी घट्नाए थी जिसे समझना आसान है पर कहना मुश्किल।
रात में भोजन अच्छा मिला।
मच्छर दानी भी मिली। अगली सुवह मुखिया जी ने कहा कि हम सपरिवार आरा चले जाऎगे इसलिए आप लोग सुवह खाना खा लेंगे। दिन में कोई खिलाने वाला न रहेगा। न चाहते हुए हमें दिन के दो बजे का भोजन आठ बजे करना पडा।निर्मल सिंह कल शाम हमें पहुंचाने के बाद आरा चले गए थे। तय हुआ था कि आरा में भी पर्चा वितरण का कार्य किया जाय। गांव से जितने लोग विस्थापित होकर गए है उनका चालीस प्रतिशत हिस्सा आरा में रहता है।अब गांव गांव से अधिक स्थानीय शहरों में रहता है। यह पर्चा उनके पास पहुंचना चाहिए। असल बात यह थी कि उनके व्यवहार से समझ में आ गया था कि वे उब रहे है। इससे पहले कि वे कहे हमने खुद ही उनके जाने का पथ प्रशस्त कर दिया।हम सुवह में खाना खाकर निकल गए थे। एकौना समृद्ध गांव है । बडे बडे घर हैं। मगर जो असहायता नजर आई वह दिल दहला देने वाली थी।
एक बूढा जिसकी नजर कमजोर हो चुकी थी, चापाकल पर अपने नातियों को नहला रहा था। एक बच्चे के सिर में साबुन लगा रगड रहा था। उसे जब हमारे बारे में पता चला तो नाती को नहाने के लिए कह कर बह सामने खाट पर बैठ गया और हाथ जोड कहा।
ए बाबू हमारा पानी ठीक कर दीजिए?
उसके शब्दों में जो करूणा थी उसे कह पाना आसान नहीं है।
कोने में दो औरते हमें देख रही थी। एक ने दूसरी से पूछा- कौन है ये?
पानी वाले हैं।
हमें एकौना में नया नाम मिला पानी वाले।
गांव में जिस दरवाजे पर हम जाते लोग बडे प्यार से बैठने के लिए कहते और चाय के लिए पूछते। हमने पहले निर्णय लिया था कि इस यात्रा में बैठेंगे नहीं। कोई पानी या चाय पीने के लिए कहता तो हम कहते । अगर आप हमारी मदद करना चाहते है तो साथ चलकर अपना गांव घुमा दें। लोग चाय पिलाने के लिए तैयार थे गांव घुमाने के लिए नही।हरिजन टोली में दस बच्चे मिले जिनकी हथेलिया सड गई थी और सूज कर अजीब लग रही थी। वहां पहले तो लगा कि हम बोट वाले है और बोट के एवज में कुछ बांटने आए है पर थोडी सी बात चीत के बाद वे हमें समझ गए और अपने घर के मरीजों को बुलाकर दिखाने लगे।एक बच्चे की हथेली का फ़ोडा फ़ूट गया था और उसमें कपडा चिपक गया था, छुडाने में जिस तरह चीखता वह हमारी आत्मा में दर्ज हो गया। हम गांव का चक्कर लगाने लगे। जिस किसी के हाथ में शुक्ला जी पर्चा देते, उसे समझाते।
वह एक घर था जिसमें कैंसर का एक मरीज था जिससे मिलने हम जा रहे थे।हमारे साथ एक स्थानीय चिकित्सक थे,शुक्ला जी थे। स्थानीय चिकित्सको से हमें सूचना मिल जाती कि कौन कौन यहां गंभीर रूप से बीमार है।कैंसर हार्ट और लीवर किडनी संबंधित मरीजो से हम जरूर मिलते। दरवाजे पर चढने से पहले उस घर के लोग हमारे इंतजार में थे।हमे देख एक युवक नीचे उतर आया।उसकी आंखों में भय था। उसने हमें प्रणाम किया और स्थानीय चिकित्सक से कहा कि आप लोग भाभी से कुछ मत बताईएगा।
कैंसर पीडिता का देवर था वह।
बहू बनकर घर आई और उसके बाद सास का निधन हो गया।उसने देवर को बेटे की तरह पाला और आज उसे उसी देवर का सहारा मिला। मानवीय रिश्ते की करूणा अंदर तक भींगो गई। दरवाजे पर तीन कुर्सियां थी। एक लकडी की, एक लोहे की और एक प्लास्टिक की। एक स्टूल पर प्लेट में तीन पेडे थे, दाल मोट था और बडे बडे तीन ग्लासों में पानी था। पानी के तल पर तेल की तरह कुछ पसरा हुआ था। पेडा खाना और पानी पीना अरुचिकर लग रहा था और उसे किसी ने हाथ तक नहीं लगाया था। तभी चाय बनकर आ गई और उसके पीछे देवर एक औरत को लिए आ रहा था जो बडी कठिनाई से चल पा रही थी। उसे आते देख स्थानीय चिकित्सक ने कुर्सी खाली कर दी। उसे बैठने में भी कठिनाई थी। उसके साथ बदबू का एक झोंका भी आया । हमें उसे देख यह समझने में समय लगा कि बदबू उसके भीतर से आ रही थी।
क्या नाम है?
उसके मुंह खुले, आवाज निकली और सांसो में उलझ गई।
बोल नही पाती- उसके देवर ने बताया।
वह कुछ कहना चाह रही थी पर कह नहीं पा रही थी। सांय साय सा कुछ उभरता मगर हम नहीं समझ पा रहे थे। उसके हाथ उपर उठते और छाती की ओर इशारा करते। उसके देवर से हमने पूछा कि वह क्या कहना चाह रही है। उसके देवर ने उसका हाथ पकड लिया। कुछ कहा। उसकी सांसो को सुना और बताया कि कह रही है कि भीतर छाती में जैसे आग लग गई है।उस औरत को फ़ेफ़डे में कैंसर है। उसका इलाज पटना के महाबीर कैंसर संस्थान में चल रहा है। इलाज के पुरजे का एक बहुत बडा बंडल था जिसमे उस बीमार जिस्म की कथा थी।उसके सांसों की बदबू में टिकना असह्य हो गया था।वहां से निकल कर आए तो उसका देवर हमें छोडने आया।मुझे याद आई उसकी बात। जब हम दरवाजे से नीचे उतर गए तो उसके देवर से पूछा=आपने स्थानीय चिकित्सक से कहा था कि आप लोग भाभी से कुछ मत बताईएगा।
जी
वो बात क्या थी? हम समझ नहीं पाए।
अभी चार दिन पहले हम पटना से आए है। दरसल डाक्टर ने जबाब दे दिया है, अब वो हप्ते दो हप्ते की मेहमान है । यह बात उनसे छिपाई गई है। वहां से निकलते हुए भूख का अहसास हो रहा था। राह में हमने सत्तू खरीदा यह सोचकर कि घोल्कर पी लेंगे। मुखिया के दरवाजे पर आए पर अजीब सा लग रहा था। हमसे सत्तू घोला नहीं गया। बार बार उस देवर का चेहरा उभर आता जिसकी कहते हुए उसकी आंखे भर आई और हमें लग रहा था कि वह अपनी भाभी के बहाने इस इलाके की धरती और प्रकृति के बारे में कह रहा हो।

कल जानिए एक और गाँव की सच्चाई…

साभार : निलय उपाध्याय

प्रस्तुति : ओ पी पांडेय

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