ऐतिहासिक भूल तो नहीं…

By pnc Nov 24, 2016

सोशल मीडिया पर लोगों के विचार 

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नोटबंदी की घोषणा का एक पखवारा बीत चुका है. फिर भी स्थितियां सामान्य नहीं हो पाई हैं. एटीएम से लेकर बैंकों तक में नकदी का घोर अभाव है. लोग पैसे-पैसे के लिए मुहताज हो चले हैं. उद्योग धंधे बंद होते जा रहे हैं. बाजार में सन्नाटा है. नोटबंदी के कारण 70 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है. सरकार बौखलाहट में रोज नए-नए नियमों की घोषणा कर रही है. एक दिन के फैसले में अगले ही दिन संशोधन किया जा रहा है. लोग बैंक खाते में पैसा होने के बावजूद कंगाली झेल रहे हैं. यह समस्या मुख्य रूप से निम्न और मध्यम वर्ग के समक्ष है. बड़े खातेदारों की समस्याओं का निदान बैंकों के साथ बेहतर संबंधों के कारण हो जा रहा है. आतंकवादियों को नए नोट मिल रहे हैं. इसका ताजा उदाहरण कश्मीर में मारे गए आतंकवादियों के पास बरामद नकदी है. उसे जांच के लिए भेजा गया है. अवैध धंधों को झटका लगा है लेकिन वे बंद होने वाले नहीं है. सरकार का तंत्र इतना मजबूत नहीं कि उनका धंधा बंद कर दे. स्पष्ट है कि इस फैसले का सबसे बुरा प्रभाव आम आदमी और उपभोक्ता बाजार पर पड़ा है. मोदी सरकार इस घोषणा से उत्पन्न होने वाली स्थितियों का आंकलन नहीं कर सकी थी. तभी घोषणा के समय बैंको की तैयारियों के लिए दो दिनों का समय मांगा था. उस समय सरकार को इसकी जानकारी नहींं थी कि एटीएम में नए नोट नहीं डाले जा सकेंगे. यह भी नहीं पता था कि रिजर्व बैंक के पास नए नोट छापने की क्या व्यवस्था है. 86 प्रतिशत करेंसी को अमान्य करने पर उसकी भरपाई कैसे होगी. सरकार सर्जिकल स्ट्राइक के बाद देशवासियों के अपार समर्थन से अति-उत्साहित थी. इसके बाद नोटबंदी के जरिए अपने नाम का डंका बजवाने की मंशा थी.

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इसके मूल में देशवासियों को चौंकाने और काले धन वालों को हड़काने की भावना काम कर रही थी. सरकार के अंदर जोश ज्यादा था होश कम. विश्व की सबसे तेज गति से विकसित होने वाली अर्थ व्यवस्था इस घोषणा के बाद किस तरह धड़ाम हो जाएगी. इसका अनुमान नहीं लगाया गया था. अभी कोई यह बताने को तैयार नहीं कि नोटबंदी के एक पखवारे में अर्थ व्यवस्था को कितना नुकसान पहुंचा है और सिकी भरपाई करने की सरकार के पास क्या योजना है. प्रधानमंत्री का बार-बार भावुक होना यह दर्शाता है कि अब उनकी समझ में आ रहा है कि उन्होंने क्या कर दिया. वे एक ऐसा तीर चला चुके हैं जिसे कमान में वापस नहीं लाया जा सकता और जो खुद चलाने वाले को ही छलनी कर रहा है. यदि घोषणा के चार-पांच दिनों के अंदर सरकार आर्थिक क्रियाकलाप को पटरी पर ला देती तो यह इतिहास में दर्ज करने लायक फैसला होता. दर्ज तो अब भी होगा लेकिन आजाद भारत की सबसे बड़ी ऐतिहासिक भूल के रूप में. आजाद भारत में कुछ ही मौके ऐसे आए हैं जब देश की पूरी आबादी को सरकार के गलत फैसले का खमियाजा भुगतना पड़ा हो. ऐसा अवसर 1975 का आपातकाल और वीपी सिंह की मंडल आयोग को लागू करने की घोषणा थी. इसके बाद पूरे देश को झकझोर देने वाला फैसला नरेंद्र मोदी के खाते में गया है. यह सरकार अपने किसी फैसले के विरोध को सहन करने को तैयार नहीं. मनीष सिसोदिया इसके विरोध में रैली निकालने पहुंचे तो जंतर-मंतर पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. शांतिपूर्ण रैली निकालना अथवा प्रदर्शन करना लोकतांत्रिक अधिकारों की श्रेणी में आता है. वैचारिक मतभेद, सहमति-असहमति अपनी जगह पर है लेकिन लोकतांत्रिक अधिकारों से किसी को वंचित करना अलोकतांत्रिक आचरण है. फैसले का विरोध करने वालों को काले धन का समर्थक और राष्ट्रविरोधी तक करार दिया जा रहा है. सरकार नोट बदलने के क्रम में अथवा करेंसी नहीं मिल पाने के कारण जिन लोगों की मौत हुई, सरकार ने उनके लिए संवेदना तक प्रकट करने की जरूरत नहीं समझी. राजनीति शास्त्र के अंदर सरकार के इस आचरण को किस रूप में परिभाषित किया जाता है, इसका अध्ययन करने की जरूरत है. सत्ता की कुर्सियों पर बैठे लोग कभी आत्ममंथन नहीं करते. अपनी गलतियां स्वीकार नहीं करते. नोटबंदी के फैसले का दंश यह देश और कितने दिनों तक झेलेगा कहना कठिन है लेकिन इतना तय है कि स्थितियों पर काबू पाने में जितना समय लगेगा, उतना ही इस देश को नुकसान उठाना पड़ेगा.

इस आलेख के लेखक हैं साहित्यकार और पत्रकार देवेन्द्र गौतम . 

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